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चौवीस तीर्थकर पुराण *
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जय उसकी आयु सिर्फ छह माहकी बाकी रह गई तब उसके कंठमें पड़ी हुई माला मुरझा गई. कल्प वृक्ष कान्ति रहित हो गये और मणि मुक्ता आदि सभी वस्तुएं प्रायः निष्प्रभ ली हो गई। यह सब देखकर उसने समझ लिया कि मेरी आयु अब छह माहकी ही बाकी रह गई है। इसके बाद मुझे अवश्य ही नर. लोकमें पैदा होना पड़ेगा । प्राणी जैसे काम करते हैं वैसा ही फल पाते हैं। मैंने अपना समस्त जीवन भोग विलासोंमें बिता दिया। अब कमसे कम इस शेष आयुमें मुझे धर्म साधना करना परम आवश्यक है। यह विचार कर पहले ललितांग देवने समस्त अकृतिम चैत्यालयोंकी वन्दना की फिर अच्युत स्वर्गमें स्थित जिन प्रतिमाओंकी पूजा करता हुआ समता सन्तोपसे समय बिताने लगा। अन्तमें समाधि पूर्वक पंच नमस्कार मन्त्रका जाप करते हुए उसने देव शरीरको छोड़ दिया।
जम्बूद्वीपके सुमेरु पर्वतसे पूर्वकी ओर विदेह क्षेत्रमें एक पुष्कलावती देश है उसकी राजधानी उत्पलखेट नामकी नगरी है। उस समय वहां बज्रबाहु राजा राज्य करते थे । उसकी स्त्रोका नाम वसुन्धरा था। राजा बजवान वसुन्धरा रानीके साथ भोग भोगते हुए इन्द्र-इन्द्राणीकी तरह आनन्दसे रहते थे। जिसका कथन ऊपर कर आये हैं वह ललितांग देव स्वर्गसे चयकर इन्हीं यत्रबाहु और वसुन्धरा राज दम्पतीके वज़जंघ नामका पुत्र हुआ। बनजंघ अपनी मनोरम चेष्टाओंसे सभीको हर्षित करता था। वह चन्द्रमाकी नाई मालूम होता था क्योंकि चन्द्रमा जिस तरह कुसुदोको विकसित करता है उसी तरह बज जंघ भी अपने कुटुम्बी कुमुदोको विकसित-हर्षित करता था। चन्द्रमा जिस तरह कलाओंसे शोभित होता है उसी तरह बज जंघ भी अनेक कलाओं चतुराइयोंसे भूषित था। चन्द्रमा जिस प्रकार कमलोंको संकुचित करता है उसी प्रकार वह भी शत्रु रूपी कमलोंको संकुचित शोभाहीन करता था और चन्द्रमा जिस तरह चांदनीसे सुहावना जान पड़ता है उसी तरह वजंघ भी मुसकान रूपी चांदनीसे सुहावना जान पड़ता था। ललितांगका मन स्वयं प्रभा देवीमें आसक्त था, इसलिये वह किसी दूसरी स्त्रियोंसे प्रेम नहीं करता था। षस उसी संस्कारसे बज जंघका चित्त किसी दूसरी स्त्रियोंकी ओर नहीं झुकता