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* चौबीस तीथकर पुराण *
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तुम्हें महावल बहुत ही श्रद्धाकी दृष्टि से देखता है। वह दशमें भवमें जम्यू द्वीपके भरत क्षेत्रमें युगका प्रारम्भ होनेपर ऋषभनाथ नामका पहला तीर्थंकर होगा, सकल सुरेन्द्र उसकी सेवा करेंगे और वह अपने दिव्य उपदेशसे संसार के समस्त प्राणियोंका कल्याण करेगा। वही उसके मुक्त होनेका समय है। अब मैं महावलके पूर्वभवका वर्णन करता हूँ जिसमें कि इसने सुख भोगनेकी इच्छासे धर्मका बीज बोया था। सुनिये:
पश्चिम विदेहमें श्री गन्धिल नामका देश है और उसमें सिंहपुर नामका एक सुन्दर नगर है। वहां किसी समय श्रीषेण राजा राज्य करते थे। उनकी स्त्रीका नाम सुन्दरी था। राजा श्रीषेणके जयवर्मा और श्री वर्मा नामके दो पुत्र थे उनमें श्रीवर्मा नामका छोटा पुत्र सभीको प्यारा था। राजाने प्रजाके आग्रहसे लघ पुत्र श्रीवर्माके लिये राज्य दे दिया और आप धर्म ध्यानमें लीन हो गये । ज्येष्ठ पुत्र जयवर्मासे अपना यह भारी अपमान नहीं सहा गया इसलिए वह संसारसे उदास होकर किसी वनमें दिगम्बर मुनि हो गया और विषय भोगोंसे विरक्त होकर उग्र तप तपने लगा। एक दिन जहाँपर जयवर्मा मुनिराज ध्यान लगाये हुए बैठे थे, वहींसे आकाशमें विहार करता हुआ कोई विद्याधरोंका राजा आ निकला । ज्योंही जयवर्माकी दृष्टि उसपर पड़ी त्योंही उसे राजा बननेकी अभिलाषाने फिर धर दवाया। उधर जयवमा विद्याधर राजाके भोगोंकी प्राप्तिमें मन लगा रहे थे इधर वामीसे निकले हुए एक सांपने उन्हें डस लिया। जिससे वे मरकर महावल हुए हैं। पूर्वभवकी वासनासे महावल अब भी रात दिन भोगों में लीन रहा करता है। __इस प्रकार पूर्वभव सुनानेके बाद मुनिराज आदित्य गतिने स्वयं बुद्ध मंत्री से कहा कि आज राजा महावलने स्वप्न देखा है कि मुझे पहले सभिन्न गति आदि मन्त्रियोंने जबर्दस्ती कीचड़में गिरा दिया है फिर स्वयं बुद्ध मन्त्रीने उन दुष्टोंको धमकाकर मुझे कीचड़से निकाला और सोनेके सिंहासनपर बैठकर निर्मल जलसे नहलाया है, तथा एक दीपकको ज्वाला प्रति क्षण क्षीण होतो जा रही है। महावल इन स्वप्नोंका फल तुमसे अवश्य पछेगा सो तुम जाकर पूछनेके पहले तो कह दो कि पहले स्वप्नसे आपका सौभाग्य प्रकट होता है
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