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चित्त-समाधि : जैन योग
सामने वाले तीन व्यक्ति भिन्न-भिन्न चीजें दिखाते हैं; एक पार्श्व वाला एक शब्द बोलता है, दूसरे पार्श्व वाला तीन अंकों की एक संख्या कहता है; पीछे खड़े दो व्यक्ति अवधानकार के दोनों हाथों में दो वस्तुओंों का स्पर्श करवाते हैं । ये सातों क्रियाएं एक साथ होती हैं ।
४. ध्रुव
- सार्वदिक एक रूप जानना ।
५. अनिश्रित - बिना किसी हेतु की सहायता लिये जानना । व्यवहारभाष्य में इसका अर्थ है - जो न पुस्तकों में लिखा गया है और जो न कहा गया है, उसका अवग्रहण
करना ।
६. असंदिग्ध — निश्चित रूप से जानना ।
२१. कायव्यायाम - जीव की प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं— मन, वचन और काय । इन तीनों को एक शब्द में योग कहा जाता है । श्रागम - साहित्य में प्राय: काययोग शब्द का प्रयोग किया गया है। बौद्ध साहित्य में सम्यक् व्यायाम शब्द का प्रयोग प्राप्त है । उस समय में सामान्य प्रवृत्ति के अर्थ में भी व्यायाम शब्द का प्रयोग किया जाता था । आयुर्वेद के ग्रन्थों में व्यायाम शब्द का प्रयोग काय की एक विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में रूढ़
है ।
२२. शरीर – शरीर पौद्गलिक है । वह जीव की शक्ति के योग से क्रिया करता है । उसके पांच प्रकार हैं
१. श्रौदारिक प्रस्थिचर्ममय शरीर ।
२. वैक्रिय - विविध रूप निर्माण में समर्थ शरीर ।
३. प्रहारक — योगशक्ति से प्राप्त शरीर ।
४. तेजस् --- तेजोमय शरीर ।
५. कार्मण कर्ममय शरीर ।
इन्हें संचालित करनेवाली जीव की शक्ति को काययोग कहा जाता है । एक क्षण में काययोग एक ही होता । उपयोग ( ज्ञान का व्यापार ) एक क्षण में दो नहीं हो सकते, किन्तु काया की प्रवृत्ति एक क्षण में दो हो सकती हैं । यहाँ उसका निषेध नहीं है । यहाँ एक क्षण में दो काययोगों का निषेध है । क्योंकि जिस जीव-शक्ति से श्रदारिक- शरीर का संचालन होता है, उसी से वैक्रिय शरीर का संचालन नहीं हो सकता । उसके लिये कुछ विशिष्ट शक्ति की अपेक्षा होती है । इस दृष्टि से जब एक काययोग सक्रिय होता है, तब दूसरा काययोग क्रियाशील नहीं हो सकता ।
शारीरिक दृष्टि से जीव छः प्रकार के होते हैं - पृथ्वीकायिक अपकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । विकासक्रम के आधार पर वे पांच प्रकार के होते हैं-- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
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