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सूयगडो
१३६ मुनि युग-प्रमाण भूमि को देखता हुआ धीरे-धीरे चले।" इस प्रकार व्युत्थित के द्वारा आगम-प्रमाण पुरस्सर अनुशासित होने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है।
अब्भुट्टिताए घडदासिए-अभ्युत्थित का अर्थ है--तत्पर होना। प्रकरणवश अभ्युत्थित का अर्थ 'दुःशील के आचरण में तत्पर' किया गया है। घटदासी का अर्थ है-- पानी लाने वाली दासी । तात्पर्य है कि घटदासी के द्वारा भी प्रमादाचरण के प्रति सावधान किये जाने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है । घटदासी के विषय में यह कथन है तो भला अल्पशील वाले व्यक्ति के द्वारा कहने पर तो अस्वीकार करने की बात ही नहीं होनी चाहिये ।।
वह घटदासी सर्पिणी की भांति फुफकार करती हुई मुनि को सावधान करते हुए कहे-'अरे ! क्या तुम ऐसा कर सकते हो ?' अथवा अत्यन्त पतित दासदासी भी सावधान करे तो मुनि ऐसा न कहे–'तुम भले ही सच कह रही हो, परन्तु मुझे कहने वाली तुम कौन हो?'
अगारिणं वा समयाणुसिछे-अगारी अर्थात् घर-गृहस्थी, चाहे फिर वह स्त्री, पुरुष या नपुंसक हो । प्रस्तुत प्रसंग में 'समय' का अर्थ है-सामाजिक शास्त्र ।
गृहस्थों के सारे अनुष्ठान सामाजिक शास्त्र के द्वारा अनुशासित होते हैं। प्रमादाचरण करने वाले मुनि को गृहस्थ कहता है-'मुने ! गृहस्थ के लिये भी ऐसा आचरण करना विहित नहीं है और आप ऐसा आचरण कर रहे हैं ?' १६. (सू० १११४६) कुज्झे-दूसरे के द्वारा दुर्वचन कहने पर वह मुनि सोचे___ आक्रुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या ।
यदि सत्यं कः कोपः, स्यादनृतं किं नु कोपेन ? कोई व्यक्ति आक्रुष्ट हो तब वह उसके आक्रोश करने के कारणों को खोजे । यदि आक्रोश करने का कारण उपस्थित है तो उस पर क्रोध क्यों किया जाए ? यदि आक्रोश व्यर्थ ही हो रहा है तो उससे क्या ? उस पर क्रोध क्यों किया जाए ।
पव्वहेज्जा-इसका अर्थ है----लकड़ी, पत्थर या ईंट आदि से मारना, चोट पहुंचाना।
तहा करिस्सं......"सेयं खु मेयं-अनुशासन किये जाने पर कोप करना, व्यथित होना और परुष वचन बोलना वर्जित है । अनुशासन के उत्तर में दो वाक्यों का प्रयोग होना चाहिये--१. तहा करिस्सं, २. सेयं खु मेयं । चूर्णिकार के अनुसार 'तथा करिष्यामि'-वैसा करूंगा-यह स्वपक्ष में 'मिच्छामि दुक्कडं' के समान तथा पर-पक्ष वालों के लिये 'यह मेरे लिये श्रेय है'--यह कहना उचित है । वृत्तिकार ने स्वपक्ष या परपक्ष का विभाजन नहीं किया है।
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