Book Title: Chitta Samadhi Jain Yog
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 248
________________ सूयगडो २३७ दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही दूसरे जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है—अथवा मुझे पीड़ित करने से मुझे दुःख होता है वैसे ही दूसरे जीवों को पीड़ित करने से उन्हें दुःख होता है । इसलिये अहिंसा समता है या समता ही अहिंसा है। वृत्तिकार ने 'समय' का अर्थ आगम किया है। उनके अनुसार 'अहिंसा-समयं' का अर्थ है-अहिंसा प्रधान आगम अथवा उपदेश । वस्तुतः प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि पढ़ने का सार है-हिंसा से निवृत्त होना । सबके साथ समान बर्ताव करना, यही समता है, यही अहिंसा है। १५. (सू० १११११११) संति -प्राणातिपात की निवृत्ति स्वयं के लिये तथा दूसरे प्राणियों के लिए शांति का कारण बनती है, इसलिये वह शांति है। जो प्राणातिपात से निवृत्त हैं, उनसे कोई नहीं डरता और न वे जन्मान्तर में भी किसी से डरते हैं । निव्वाण-प्राणातिपात की निवृत्ति निर्माण का प्रधान हेतु है। इसलिये वही निवृत्ति है अथवा जो विरत है वही शान्तिरूप और निर्वृत्तिरूप है। १६. (सू० १।११।१२) पभू-चूणिकार ने प्रभू के तीन अर्थ किये हैं१. जितेन्द्रिय २. आत्मा ३. मोक्षमार्ग की अनुपालना में समर्थ । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं१. जितेन्द्रिय २. संयम के आवारक कर्मों को तोड़कर मोक्षमार्ग का पालन करने में समर्थ । दोसे-चूर्णिकार ने क्रोध आदि को दोष माना है और वृत्तिकार ने पांच आश्रवद्वारों-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को दोष माना है। प्रकरण के अनुसार 'दोष' का अर्थ द्वेष प्रतीत होता है। मनुष्य द्वेष के कारण दूसरों के साथ विरोध करता है । इसीलिए बतलाया गया है कि द्वेष का निराकरण कर किसी के साथ विरोध न करे । णिराकिच्चा-इसका अर्थ है-पीठ पीछे । १७. (सू०११४।७) डहरेण वुड्ढेण-डहर का अर्थ है छोटा और वुड्ढेण का अर्थ है बूढ़ा। प्रस्तुत प्रसंग में दीक्षा-पर्याय और अवस्था की दृष्टि से छोटे-बड़े का उल्लेख किया गया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'डहर' के साथ जन्म-पर्याय और दीक्षा-पर्याय को जोड़ा है। चूर्णिकार ने वृद्ध के साथ अवस्था का और वृत्तिकार ने अवस्था और श्रुत-दोनों का संबंध जोड़ा है। वृत्तिकार का कथन है कि कोई मुनि प्रमाद का आचरण करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288