Book Title: Chitta Samadhi Jain Yog
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 247
________________ २३६ चित्त-समाधि : जैन योग 'साधारण' ही होती है । और जो बादर वनस्पति है, उसके दो भेद होते हैं—साधारण और असाधारण । चूर्णिकार ने भी 'पुढो सत्ता' का अर्थ प्रत्येक शरीर---स्वतंत्र शरीर किया है। किन्तु वनस्पति के विषय में वे मौन हैं । __सबीयगा-इसका अर्थ है-बीज पर्यन्त । इसके चूणिकार अगस्त्यसिंह स्थविर तथा जिनदासमहत्तर ने इस शब्द के द्वारा वनस्पति के दस भेदों का ग्रहण किया है। वनस्पति के दस भेद ये हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । मूल की अंतिम परिणति बीज में होती है। प्रस्तुत श्लोक के 'सबीयगा' शब्द की टीका करते हुए टीकाकार शीलांकसूरि ने इस शब्द के द्वारा केवल अनाज का ग्रहण किया है । १३. (सू० ११११९ अनुजुत्तीहिं—अनुयुक्ति का अर्थ है—अनुरूप युक्ति अर्थात् सम्यक् हेतु । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-अनुकूल साधन, युक्तिसंगत युक्ति । प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि मतिमान् पुरुष छह जीवनिकायों के जीवत्व की संसिद्धि उनके अनुकूल युक्तियों से करे । सभी जीवों की संसिद्धि एक ही हेतु से नहीं हो सकती। उनके लिये भिन्न-भिन्न उक्तियां होती हैं । विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १७५३१७५८ की स्वोपज्ञवृत्ति में इन युक्तियों का सुन्दर समावेश है-वृत्तिकार ने इन युक्तियों का संक्षिप्त विवरण दिया है १. पृथ्वी सजीव है, क्योंकि पृथ्वीरूप प्रवाल, नमक, पत्थर आदि पदार्थ अपने समान जातीय अंकुर से उत्पन्न करते हैं, जैसे अर्श का विकार अंकुर ।। २. पानी सजीव है क्योंकि भूमि को खोदने पर वह वास्तविक रूप से उपलब्ध होता है, जैसे-दर्दुर । अन्तरिक्ष से स्वाभाविक रूप से गिरता है, जैसे—मत्स्य । ३. अग्नि सजीव है, क्योंकि अनुकूल आहार (ईंधन) की वृद्धि से वह बढ़ती है, जैसे-बालक आहार मिलने पर बढ़ता है। ४. वायु सजीव है क्योंकि बिना किसी की प्रेरणा के वह नियमतः तिरछी गति करता है । जैसे-गाय । ५. वनस्पति सजीव है, क्योंकि उसमें उत्पत्ति, विनाश, रोग, वृद्धत्व आदि होते हैं । चिकित्सा से वह स्वस्थ होती है । उसके व्रण भरते हैं। उसमें आहार की इच्छा होती है, दोहद भी होता है। कुछ वनस्पतियां स्पर्श से संकुचित होती हैं, कुछ रात में सोती हैं और दिन में जागती हैं, कुछ दूसरे के आश्रय से उपसर्पण करती हैं। १४. (सू० १।११।१०) अहिंसा-समयं—इसकी व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार का मतभेद है। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-अहिंसा ही समता है । जैसे मुझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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