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चित्त-समाधि : जैन योग
इस प्रकार विभिन्न द्रव्यों में चामत्कारिक शक्तियां होती हैं । उनका विवरण प्रस्तुत करने वाला ग्रंथ है - योनिप्राभृत ।
यह द्रव्य - वीर्य का कुछ विवरण है ।
इसी प्रकार क्षेत्र और काल वीर्य भी होता | क्षेत्रवीर्य जैसे देवगुरु आदि क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले सभी द्रव्य विशिष्ट शक्ति सम्पन्न होते हैं । काल की भी अनन्त शक्ति होती है । आयुर्वेद ग्रंथों में काल के प्रभाव से होने वाली गुणवृद्धि का स्पष्ट उल्लेख है— वर्षा ऋतु में नमक, शरद ऋतु में पानी, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, वसन्त में घी और ग्रीष्म में गुड़ —ये अमृततुल्य हो जाते हैं ।
भाववीर्य - इसके तीन प्रकार हैं- औरस्य बल, इन्द्रिय बल और अध्यात्म
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बल ।
२५. ( सू० १1८1२)
कर्मवीर्य-कर्म और क्रिया- दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । आगम में कर्म के अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं - उत्थान, कर्म, बल, वीर्य । इसका दूसरा अर्थ है - कर्मों के उदय से निष्पन्न शक्ति को कर्मवीर्य कहा जाता है । यह बालवीर्य है ।
अकर्मवीर्यवीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न सहनशक्ति को अकर्म वीर्य कहा जाता है । इसमें कर्म-बंध नहीं होता और न यह कर्मबन्ध में हेतुभूत ही होता है । यह पंडितवीर्य है ।
सुव्वया - चूर्णिकार ने 'सुव्रत' का अर्थ तीर्थंकर किया है ।
२६. ( सू० ११८१३)
पमा कम्ममा हंसु - कर्मवीर्य को प्रमाद और अकर्मवीर्य को अप्रमाद कहा गया है | यह कथन कारण में कार्य का उपचार कर किया गया है ।
तब्भावदेसओ- - इसका अर्थ है - तद्भाव की अपेक्षा से । 'भाव' का अर्थ है-होने से और आदेश का अर्थ है-कथन, उपदेश । अर्थात् इन दोनों चरणों का अर्थ होगा - कर्मवीर्य के तद्भाव की अपेक्षा से मनुष्य बाल और अकर्मवीर्य के तद्भाव की
अपेक्षा से मनुष्य पंडित कहलाता है ।
अभव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि - अपर्यवसित होता है और भव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि सपर्यवसित और सादि - सपर्यवसित- दोनों प्रकार का होता है । पंडित वीर्य सादि सपर्यवसित ही होता है ।
२७-२८. ( सू० १।८।२३, २४ )
साधना के क्षेत्र में दो प्रकार के पुरुष होते हैं
१. अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी ।
२. बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी ।
ये दोनों ही वीर होते हैं । अबुद्ध पुरुष सकर्मवीर्य में वर्तमान होते हैं और बुद्ध
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