Book Title: Chitta Samadhi Jain Yog
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 254
________________ सूयगडो २४३ पुरुष अकर्मवीर्य में वर्तमान होते हैं । ये दोनों ही पराक्रम करते हैं । अबुद्ध पुरुष सकर्मवीर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिये उनका पराक्रम अशुद्ध और सफलकर्मबंधयुक्त होता है । बुद्ध पुरुष अकर्मवीर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिये उनका पराक्रम शुद्ध और अफलकर्मबंधमुक्त होता है । ये दोनों श्लोक सकर्मवीर्य और अकर्मवीर्य के उपसंहार-वाक्य हैं। इनमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पराक्रम प्रत्येक मनुष्य करता है । अबुद्ध या अज्ञानी मनुष्य भी करता है तथा बुद्ध या ज्ञानी मनुष्य भी करता है। पराक्रम अपने में पराक्रम-मात्र है । उसमें कोई अन्तर नहीं होता। अन्तर डालने वाले दो तत्त्व हैं-ज्ञान और दृष्टि । अज्ञान और असम्यक्दृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम अशुद्ध और सफल होता है । अशद्ध का अर्थ है कि वह शल्य.गौरव. कषाय आदि दोषों से यक्त होता है और सफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से मुक्त होने के कारण कर्मबंध का हेतु भी बनता है । ज्ञान और सम्यक्दृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध और अफल होता है । शुद्ध का अर्थ है कि वह शल्य, गौरव, कषाय आदि दोषों से मुक्त होता है और अफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से मुक्त होने के कारण संयममय होता है। संयम का फल है-अनास्रव-कर्म बंध न होना। असम्यक्त्वदर्शी के पराक्रम को अशुद्ध और सफल कहने का तात्पर्य शल्य आदि दोषों से युक्त पराक्रम की, साधना की दृष्टि से अवांछनीयता प्रदर्शित करना है। प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में इसका समर्थन सूत्र मिलता है"जइ वि य णिगिणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो। जे इइ मायादि मिज्जई, आगन्ता अब्भादणंतसो।।" यद्यपि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह को कृश करता है और मास-मास के अन्त में एक बार खाता है, फिर भी माया आदि से परिपूर्ण होने के कारण वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है। चूणि के आधार पर इन दोनों श्लोकों का प्रतिपाद्य यह है-अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है। बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से मुक्त होने के कारण शुद्ध होता है । समीक्षात्मक दृष्टि से यह कहना उचित होगा कि इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की आकांक्षा तथा पूजा श्लाघा के लिये किया जाने वाला पराक्रम साधना की दृष्टि से अवांछनीय है और केवल निर्जरा के लिये किया जाने वाला पराक्रम वांछनीय है। असम्यक्त्वदर्शी निर्जरा के लिये कुछ भी नहीं करता और सम्यक्त्वदर्शी सब कुछ निर्जरा के लिये ही करता है, यह इसका प्रतिपाद्य नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288