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चित्त-समाधि : जैन योग
और (२) प्रणीत (स्निग्ध) पान-भोजन का त्याग ।
प्रोपपातिक में इसका विस्तार मिलता है। वहां इसके निम्न प्रकार हैं१. निर्विकृति-विकृति का त्याग । २. प्रणीत रस-परित्याग-स्निग्ध व गरिष्ठ पाहार का त्याग । ३. आचामाम्ल-अम्ल-रस मिश्रित भात प्रादि का पाहार । ४. आयाम-सिक्थ-भोजन ---प्रोसामण से मिश्रित अन्न का आहार । ५. अरस आहार--हींग ग्रादि से असंस्कृत आहार । ६. विरस आहार-पुराने धान्य का पाहार । ७. अन्त्य आहार-वल्ल प्रादि तुच्छ धान्य का आहार । ८. प्रान्त्य पाहार-ठण्डा पाहार । ८. रूक्ष आहार-रूखा आहार ।
इस तप का प्रयोजन है 'स्वाद विजय'। इसीलिये रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं खाता ।
विकृतियां नौ हैं - दूध, दही, नवनीत, घृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य और मांस । इसमें मधु, मद्य, मांस और नवनीत-ये चार महाविकृति यां हैं।
जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं --स्वाद लोलुप या विषय-लोलुप बनते हैं, उन्हें विकृति' कहा जाता है। पंडित पाशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए
१. गोरस विकृति ---दूध, दही, घृत और मक्खन प्रादि । २. इक्षु-रस विकृति---गुड़, चीनी आदि । ३. फल-रस विकृति - अंगूर, ग्राम प्रादि फनों का रस । ४. धान्य-रस विकृति-तैल, मांड आदि ।
स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है। इसलिये रस-परित्याग करने वाला शाक, व्यञ्जन, नमक आदि का भी वर्जन करता है । मूलाराधना के अनुसार दूध, दही, घृत, तैल और गुड़ - इनमें से किसी एक का अथवा इन पत्र का परित्याग करना 'रस-परित्याग' है। 'अवगाहिम विकृति' (मिठाई) पूड़े, पर शाक, दाल, नमक आदि का त्याग भी रस-परित्याग है ।
रस-परित्याग करने वाले मुनि के लिये निम्न प्रकार के भोजन का विधान है१. अरस-पाहार--स्वाद-रहित भोजन । २. अन्यवेलाकृत-ठंडा भोजन । ३. शुद्धौदन-शाक आदि से रहित कोरा भात । ४. रूखा भोजन-घृत-रहित भोजन । ५. प्राचामाम्ल-अम्ल-रस-सहित भोजन ।
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