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चित्त-समाधि : जैन योग
प्रच्छना, ३. अनुप्रेक्षा, ४. आम्नाय और ५. धर्मोपदेश ।
इनमें परिवर्तना के स्थान में 'प्राम्नाय' है । आम्नाय का अर्थ है 'शुद्ध उच्चारण पूर्वक बार-बार पाठ करना ।'
परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना उचित लगता है। स्वाध्याय के प्रकारों में एक क्रम है -प्राचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं, यह वाचना है । पढ़ते समय या पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, उन्हें वह प्राचार्य के सामने प्रस्तुत करता है, यह प्रच्छना है । प्राचार्य से प्राप्त श्रुत को याद रखने के लिये वह बार-बार उसका पाठ करता है, यह परिवर्तना है । परिचित श्रुत का मर्म समझने के लिये वह उसका पर्या लोचन करता है, यह अनुप्रेक्षा है । पठित, परिचित और पर्यालोचित श्रुत का वह उपदेश करता है, यह धर्म कथा है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से पहले प्राप्त होता है ।
सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है-'ग्रन्थ और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना।' इसमें वर्णों का उच्चारण नहीं होता और पाम्नाय में वर्गों का उच्चारण होता है, यही इन दोनों का अन्तर है। अनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के अनुसार उसे माम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है ।
आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादान--ये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं।
अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोग-वर्णन, धर्मोपदेश--ये धर्मोपदेश या धर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं। ६१. श्लोक ३५
___ ध्यान पाम्यन्तर-तप का पांचवां प्रकार है। तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार व्युत्सर्ग पांचवां और ध्यान छठा प्रकार है । ध्यान से पूर्व व्युत्सर्ग किया जाता है, इस दृष्टि से यह क्रम उचित है और व्युत्सर्ग ध्यान के बिना भी किया जाता है । उसका स्वतंत्र महत्त्व भी है, इसलिये उसे ध्यान के बाद भी रखा जा सकता है। ध्यान को परिभाषा
चेतना की दो अवस्थाएं होती हैं-१. चल और २. स्थिर । चल चेतना को 'चित्त' कहा जाता है । उसके तीन प्रकार हैं---
१. भावना--भाव्य विषय पर चित्त को बार-बार लगाना । २. अनुप्रेक्षा.-ध्यान से विरत होने पर भी उससे प्रभावित मानसिक चेष्टा । ३. चिन्ता-सामान्य मानसिक चिन्ता ।
स्थिर चेतना को 'ध्यान' कहा जाता है। जैसे अपरिस्पंदमान अग्नि-ज्वाला 'शिखा' कहलाती है, वैसे ही अपरिस्पन्दमान ज्ञान 'ध्यान' कहलाता है।
एकाग्र-चिन्तन को भी ध्यान कहा जाता है। चित्त अनेक वस्तुओं या विषयों में
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