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सूयगडो
४. ( सू० ११५७ )
जेण जाई ण मिज्जती - इस चरण का अर्थ है जो न जन्म लेता है और न मरता है अर्थात् जो जन्म मरण की परम्परा से सर्वथा छूट जाता है ।
वृत्तिकार ने इसका एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है-वह प्राणी सदा के लिए मुक्त हो जाता है । फिर उसके लिए 'यह नारक है, यह तिर्यञ्चयोनिक है' इस प्रकार का व्यपदेश नहीं होता, इस प्रकार का भेद नहीं होता ।
५. ( सू० १।८।२७)
भाणजोगं - भावनायोग, ध्यानयोग, तपोयोग आदि अनेक प्रकार के योग हैं । ध्यान के द्वारा होनेवाली योग-प्रवृत्ति ध्यानयोग है । चित्त का एक धारावाही होना एकाग्रता है और उसका विकल्पशून्य हो जाना निरोध है । एकाग्रता और निरोध — ये दोनों ध्यान हैं । ध्यान तीन प्रकार का है मानसिक ध्यान, वाचिक ध्यान और कायिक ध्यानइसे ध्यानयोग कहा जाता है ।
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कार्य वोसेज्ज - इसका अर्थ है - देहासक्ति और दैहिक प्रवृत्ति का विसर्जन करना । चूर्णिकार ने काय - व्युत्सर्ग का अर्थ काया की सार-संभाल न करना, उसके निर्वाह के लिये आहार आदि की प्रवृत्ति भी न करना, उसकी सफाई न करना, आदि किया है ।
आमोक्खाए-आमोक्ष के दो अर्थ हैं
१. जब तक मोक्ष प्राप्त न हो तब तक ।
छूटे तब तक ।
२. जब तक शरीर न इसका तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य जन्म-मरण करता हुआ, समस्त कर्मों का नाशकर, कर्म - बन्धन से छूटकर मोक्ष नहीं पा लेता तब तक वह संयम का अनुपालन करे । अथवा, जीवन पर्यन्त अर्थात् जब तक उसका शरीर न छूट जाए तब तक वह संयम का पालन करे ।
परिव्वज्जासि-परिव्रजन का सामान्य अर्थ है- विहरण करना । इसका आग - मिक अर्थ है - संयम की साधना करना, यही अर्थ संगत है |
६. ( सू० १।१५।५ )
भावणा जोग सुद्धप्पा - जिन चेष्टाओं व संकल्पों के द्वारा मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाता है, उन्हें 'भावना' कहा जाता है। भावनाएं असंख्य हैं । फिर भी उनके अनेक वर्गीकरण प्राप्त हैं-पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं, अनित्य आदि बारह भावनाएं, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ आदि चार भावनाएं आदि-आदि ।
भावनाओं का महत्त्व बतलाते हुए योगशास्त्र ४।१२२ में कहा है"आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संधते,
विशुद्धध्यानसन्ततिम् ॥"
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