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उत्तरज्झयणाणि
प्रवचनसारोद्धार के अनुसार ऋज-मार्ग से भिक्षाटन करते हुए जाता है, वापस पाते समय भिक्षा नहीं करता।
इन गोचरान की प्रतिमानों से ऊनोदरी होती है, इसलिये इन्हें 'क्षेत्रतः अवमौदर्य' भी कहा गया है। सात एषणाएं
१. संसृष्टा-खाद्य वस्तु से लिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना। २. असंसृष्टा-भोजन-जात से प्रलिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना ।
३. उद्धृता-अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ पाहार लेना।
४. अल्पलेपा-प्रल्पलेप वाली अर्थात् चना, चिउड़ा आदि रूखी वस्तु लेना। ५. अवगृहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। ६. प्रगृहीता-परोसने के लिये कड़छी या चम्मच से निकाला हुअा आहार लेना।
७. उज्झित वर्मा-जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना।
मूलाराधना में वृत्ति-संक्षेप के प्रकार भिन्न रूप से प्राप्त होते हैं१. संसृष्ट–शाक, कुल्माष आदि धान्यों से संसृष्ट आहार । २. फलिहा-मध्य में प्रोदन और उसके चारों ओर शाक रखा हो, ऐसा आहार। ३. परिखा–मध्य में अन्न और उसके चारों ओर व्यंजन रखा हो, वैसा आहार।
४. पुष्पोपहित-व्यंजनों के मध्य में पुष्पों के समान अन्न की रचना किया हुआ पाहार ।
५. शुद्धगोपहित-निष्पाव आदि घान्य से अमिश्रित शाक, व्यञ्जन प्रादि । ६. लेपकृत-हाथ के चिपकने वाला आहार । ७. अलेपकृत—हाथ के न चिपकने वाला पाहार ।
८. पानक—द्राक्षा प्रादि से शोधित पानक-चाहे वह सिक्थ-सहित हो या सिक्थ-रहित ।
अमुक द्रव्य अमुक क्षेत्र में, अमुक कान में व अमुक अवस्था में मिले तो लूं अन्यथा नहीं-इस प्रकार अनेक अभिग्रहों के द्वारा वृत्ति का संक्षेप किया जाता है। ५४. रसविबज्जणं
रस-विवर्जन या रस-परित्याग, बाह्य-तप का चतुर्थ प्रकार है । मूलाराधना में वृत्ति-परिसंख्या चतुर्थ और रस-परित्याग तृतीय प्रकार है ।
उत्तराध्ययन में रस-विवर्जन का अर्थ है-(१) दूध, दही, घी आदि का त्याग
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