Book Title: Chitta Samadhi Jain Yog
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 158
________________ उत्तरज्झयणाणि २४७ उन्हीं परीषहों पर विजय पाने की स्थिति प्राप्त है, जो क्रोध-विजय से संबंधित है। क्रोधी मनुष्य गाली, वध आदि को नहीं सह सकता। क्रोध पर विजय पाने वाला उन्हें सह लेता है । शान्ति का अर्थ यदि 'सहिष्णुता' किया जाए तो परीषह-विजय का अर्थ व्यापक हो जाता है । सहिष्णुता से सभी परीषहों पर विजय पाई जा सकती है। केवल गाली और वध पर ही नहीं। ४०. अज्जवयाए माया और असत्य तथा ऋजुता और सत्य का परस्पर गहरा सम्बन्ध है । इस सूत्र में ऋजुता के चार परिणाम बतलाए गये हैं-१. काया की ऋजुता, २. भाव की ऋजुता, ३. भाषा की ऋजुता, ४. अविसंवादन । ऋजुता का परिणाम ऋजुता कैसे हो सकता है । सहज ही यह प्रश्न होता है। उसका समाधान स्थानांग के एक सूत्र में मिलता है । वहां कहा गया है -सत्य के चार प्रकार होते हैं-१. काया की ऋजुता, २. भाषा की ऋजुता, ३. भाव की ऋजुता, ४. अविसंवादन योग। काया की ऋजुता-यथार्थ-अर्थ की प्रतीति कराने वाली काया की प्रवृत्ति । वेषपरिवर्तन, अंग-विकार आदि का प्रकरण । भाषा की ऋजुता-यथार्थ-अर्थ की प्रतीति कराने वाली वाणी की प्रवृत्ति । उपहास आदि के निमित्त वाणी में विकार न लाना । भाव की ऋजुता—जैसा मानसिक चिन्तन हो वैसा ही प्रकाशित करना । अविसंवादन योग-किसी कार्य का संकल्प कर उसे करना। दूसरों को न ठगना। इस सूत्र के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋजुता का परिणाम सत्य है । ४१. भावसच्चेणं भाव-सत्य का अर्थ अन्तरात्मा की सच्चाई है। सत्य और शुद्धि में कार्य-कारणभाव है । भाव की सच्चाई से भाव की विशुद्धि होती है। बावनवे सूत्र में योग-सत्य का उल्लेख है उसका एक प्रकार मनः-सत्य है। सहज ही भाव और मन का भेद समझने की जिज्ञासा होती है। इन्द्रिय से सूक्ष्म मन और मन से सूक्ष्म भाव (प्रात्मा का प्रान्तरिक अध्यवसाय) होता है। मन के परिणाम को भी भाव कहा जाता है, किन्तु प्रकरण के अनुसार यहाँ इसका अर्थ अन्तर-आत्मा ही संगत है। करण-सत्य का सम्बन्ध भी योग-सत्य से है। करने का अर्थ है-~मन, वचन और काया की प्रवृत्ति। फिर भी करने की विशेष स्थिति को लक्ष्यकर उसे योग-सत्य से पृथक् बतलाया गया है। करण-सत्य का अर्थ है-विहित कार्य को सम्यक् प्रकार से और तन्मय होकर करना । योग-सत्य का अर्थ है-मन, वचन और काया को अवितथ स्थिति में रखना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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