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उत्तरज्झयणाणि
(४) रस-परित्याग के प्रयोजन : (क) इन्द्रिय-निग्रह, (ख) निद्रा-विजय पौर (ग) स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि ।
(५) विविक्त-शय्या के प्रयोजन : (क) बाधात्रों से मुक्ति, (ख) ब्रह्मचर्य-सिद्धि और (ग) स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि।
(६) काय-क्लेश के प्रयोजन : (क) शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता का स्थिर अभ्यास, (ख) शारीरिक सुख की वाञ्छा से मुक्ति और (ग) जैन-धर्म की प्रभावना। ___ आभ्यन्तर तप के छह प्रकार हैं-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग । प्राभ्यन्तर तप के परिणाम
भाव-शुद्धि, चंचलता का प्रभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिक-दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त के परिणाम हैं।
ज्ञान-लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक्-आराधना आदि विनय के परिणाम हैं ।
चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का प्रभाव, प्रवचन-वात्सल्य आदि वैयावृत्त्य के परिणाम हैं।
प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय. प्रवचन की प्रविच्छिन्नता, अतिचार-विशुद्धि, संदेह-नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव मादि स्वाध्याय के परिणाम हैं।
कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दु:खों से बाधित न होना । सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना, ध्यान के परिणाम हैं।
निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं। ४८. इत्तिरिया प्रोपपातिक (सूत्र १६) में इत्वरिक के चौदह प्रकार बतलाये गये हैं
१ चतुर्थ-भक्त -उपवास । २ षष्ट-भक्त
-२ दिन का उपवास । ३ अष्टम-भक्त -३ दिन का उपवास । ४ दशम-भक्त
-४ दिन का उपवास । ५ द्वादश-भक्त -५ दिन का उपवास । ६ चतुर्दश-भक्त -६ दिन का उपवास । ७ षोडश-भक्त -७ दिन का उपवास ।
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