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४. अनिहरि गिरि-गुफा आदि में जिससे मृत्यु के पश्चात् निर्हरण करना आवश्यक न हो ।
चित्त-समाधि : जन योग
स्व-गण का त्याग कर पर-गण में न जा सके, वह
प्रायोपगमन के वर्णन में प्राचार्य शिवकोटि ने अनिहरि और निहार का अर्थ 'अचल' और 'चल' भी किया है । मूलाराध्ना के भक्त प्रत्याख्यान के निरुद्धतर और परमनिरुद्ध की तुलना श्रौपपातिक के पादोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान के एक प्रकार - व्याघात सहित से होती है । व्याघात- सहित का श्रर्थ है- सिंह, दावानल श्रादि का व्याघात उत्पन्न होने पर किया जाने वाला अनशन ।
पपातिक के अनुसार पादपोपगमन और भक्त - प्रत्याख्यान दोनों अनशनों के दोदो प्रकार होते हैं - १. व्याघात - सहित और २. व्याघात - रहित ।
इनसे यह फलित होता है कि अनशन व्याघात उत्पन्न होने पर भी किया जाता है और व्याघात न होने पर भी किया जाता है । सूत्रकृतांग के अनुसार शारीरिक बाघा उत्पन्न होने या न होने पर भी अनशन किया जाता है ।
अनशन का हेतु शरीर के प्रति निर्ममत्व है । जब तक शरीर - ममत्व होता है, तब तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहता है और जब वह शरीर - ममत्व से मुक्त होता है, तब मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जाता है । अनशन को देह-निर्ममत्व या अभय की साधना का विशिष्ट प्रकार कहा जा सकता है । मृत्यु अनशन का उद्देश्य नहीं, किन्तु उसका गौण परिणाम है । उसका मुख्य परिणाम है—-आत्म-लीनता ।
मूलाराधना में अनशन के अधिकारी का वर्णन है । इसके अधिकारी वे होते हैं१. जो दुश्चिकित्स्य व्याधि (संयम को छोड़े बिना जिसका प्रतिकार करना संभव न हो ) से पीड़ित हो ।
२. जो श्रामण्य-योग की हानि करनेवाली जरा से अभिभूत हो ।
३. जो देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों से उपद्रुत हो ।
४. जिसके चारित्र - विनाश के लिये अनुकूल उपसर्ग किये जा रहे हों । ५. दुष्काल में जिसे शुद्ध भिक्षा न मिले ।
६. जो गहन अटवी में दिग्मूढ़ हो जाए प्रोर मार्ग हाथ न लगे । जिसके चक्षु श्रीर श्रोत्र दुर्बल तथा जंघाबल क्षीण हो जाए और जो विहार करने में समर्थ न हो ।
७.
उक्त व अन्य इन जैसे कारण उपस्थित होने पर व्यक्ति अनशन का अधिकारी होता है ।
जिस मुनि का चारित्र निरतिचार पल रहा हो, संलेखना कराने वाले प्राचार्य ( निर्णायक आचार्य) भविष्य में सुलभ हों, दुर्भिक्ष का भय न हो, बैसी स्थिति में वह
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