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ठाणं
नगर में घुमाते हैं, पेट के बल रेंगते हुए नगर में जाने को कहते हैं, शरीर पर राख लगाकर लोगों के बीच जाने को प्रेरित करते हैं, कारागृह में प्रविष्ट करते हैं-ये सब सावद्य जीतव्यवहार के उदाहरण हैं।
दस प्रकार के प्रायश्चित्त का व्यवहरण करना निरवद्य जीतव्यवहार है। अपवाद रूप में सावध जीतव्यवहार का भी पालम्बन लिया जाता है। जो श्रमण बार-बार दोष करता है, बहुदोषी है, सर्वथा निर्दय है तथा प्रवचन-निरपेक्ष है, ऐसे व्यक्ति के लिए सावद्य जीतव्यवहार उचित होता है।
जो श्रमण वैराग्यवान्, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरु है, उसके कहीं स्खलित हो जाने पर निरवद्य जीतव्यवहार उचित होता है।
जो जीतव्यवहार पार्श्वस्थ, प्रमत्तसंयत मुनियों द्वारा प्राचीर्ण है, भले फिर वह अनेक व्यक्तियों द्वारा प्राचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला नहीं होता है।
व्यवहार साधु-संघ की व्यवस्था का प्राधार-बिन्दु रहा है। इसके माध्यम से संघ को निरन्तर जागरूक और विशुद्ध रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। इसलिए चारित्र की आराधना में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
६९. प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैं। वे ये हैं१. शिक्षा-इसके दो प्रकार हैं---ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा ।
ग्रहणशिक्षा-सूत्र और अर्थ का ग्रहण करना । आसेवन शिक्षा–प्रतिलेखन प्रादि का प्रशिक्षण लेना।
२. भोजनमंडली-प्राचीनकाल में साधुओं के लिए सात मंडलियां होती थीं१. सूत्रमंडली, २. अर्थमंडली, ३. भोजनमंडली, ४. कालप्रतिलेखन मंडली, ५. पावश्यक (प्रतिक्रमण) मंडली, ६. स्वाध्यायमंडली, ७. संस्तारक मंडली।
३. उद्देश—यह अध्ययन तुम्हें पढ़ना चाहिए-गुरु के इस निर्देश को उद्देश कहा जाता है।
४. समुद्देश-शिष्य भलीभांति पाठ पढ़कर गुरु के निवेदित करता है। गुरु उस समय उसे स्थिर, परिचित करने का निर्देश देते हैं । यह निर्देश समुद्देश कहलाता है ।
५. अनुज्ञा-पढ़े हुए पाठ के स्थिर परिचित हो जाने पर शिष्य फिर उसे गुरु को निवेदित करता है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उसे सम्यक् प्रकार से धारण करने और दूसरों को पढ़ाने का निर्देश देते हैं । इस निर्देश को अनुज्ञा कहा जाता है।
६. पालोचना-गुरु को अपनी भूल निवेदन करना। ७. व्युतिवर्तन-प्रतिचारों के क्रम का विच्छेदन करना।
७०. स्थालीपाक-अट्ठारह प्रकार के स्थालीपाक--शुद्ध व्यञ्जन । स्थाली का अर्थ है --पकाने की हंडिया। शब्दकोष में इसके पर्यायवाची शब्द हैं—उखा, पिठर, कुंड, चरु, कुम्भी।
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