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उत्तरज्झयणाणि
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का अर्थ है-श्लाघा । कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक ये चारों पर्याय-शब्द हैं। इनमें कुछ अर्थ-भेद भी है।
संज्वलन का अर्थ है-गुण-प्रकाशन ।
भक्ति का अर्थ है-हाथ-जोड़ना, गुरु के आने पर खड़ा होना, प्रासन देना आदि।
बहुमान का अर्थ है--अान्तरिक अनुराग । ६ मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं
जो मानसिक वृत्तियां और अध्यवसाय शल्य (अन्तव्रण) की तरह क्लेशकर होते हैं, उन्हें 'शल्य' कहा जाता है । वे तीन हैं--१. माया, २. निदान-तप के फल की आकांक्षा करना, भोग की प्रार्थना करना और ३. मिथ्या-दर्शन--मिथ्या-दृष्टिकोण ।
ये तीनों मोक्ष-मार्ग के विध्न और अनन्त संसार के हेतु हैं । स्थानांग (१०/७३३) में कहा गया है—आलोचना वही व्यक्ति कर सकता है, जो मायावी नहीं होता। १० करणगुणसेडिं
संक्षेप में 'करण-सेढि' का अर्थ है...-'क्षपक-श्रेणि'। मोह-विलय की दो प्रक्रियाएं हैं। जिसमें मोह का उपशम होते-होते वह सर्वथा उपशान्त हो जाता है, उसे 'उपशमश्रेणि' कहा जाता है। जिसमें मोह क्षीण होते-होते पूर्ण क्षीण हो जाता है, उसे 'क्षपकश्रेणि' कहा जाता है। उपशम-श्रेणि से मोह का सर्वथा उद्घात नहीं होता, इसलिये यहाँ क्षपक-श्रेणि ही प्राप्त है। करण का अर्थ 'परिणाम' है । क्षपक-श्रेणि का प्रारंभ आठवें गुणस्थान से होता है। वहाँ परिणाम-धारा वैसी शुद्ध होती है, जैसी पहले कभी नहीं होती। इसीलिये आठवें गुणस्थान को 'अपूर्व-करण' कहा जाता है। अपूर्व-करण से जो गुण-श्रेणि प्राप्त होती है, उसे करण-गुण-णि कहा जाता है। यह जब प्राप्त होती है तब मोहनीय-कर्म के परमाणुओं की स्थिति अल्प हो जाती है और उनका विपाक मन्द हो जाता है। इस प्रकार मोहनीय-कर्म निर्वीर्य बन जाता है । ११ अपुरक्कारं
यहाँ 'अपुरक्कार-अपुरस्कार' का अर्थ 'अनादर' या 'अवज्ञा' है। यह व्यक्ति गुणवान् है, कभी भूल नहीं करता--इस स्थिति का नाम पुरस्कार है। अपने प्रमादाचरण को दूसरों के सामने प्रस्तुत करने वाला इससे विपरीत स्थिति को प्राप्त होता है, वही अपुरस्कार है । १२ प्रणन्तघाइपज्जवे
आत्मा के चार गुण अनन्त हैं—१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. वीतरागता, ४. वीर्य । इनके आवारक परमाणुनों को ज्ञानावरण और दर्शनावरण, सम्मोहक परमाणुगों को मोह तथा विघातक परमाणुओं को अन्तराय-कर्म कहा जाता है। उनकी अनन्त परिणतियों से प्रात्मा के अनन्त गुण आवृत्त, सम्मोहित और प्रतिहत होते हैं।
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