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उत्तरज्भयणाणि
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भाषा में समुदाय-जीवी वह होता है, जिसका मन संगमका ( श्रनेकता में लिप्त ) होता है और व्यक्ति जीवी या अकेला वह होता है, जिसका मन प्रसंग होता है – किसी भी वस्तु या व्यक्ति में लिप्त नहीं होता । इसी तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रसंग मन वाला समुदाय में रहकर भी अकेला रहता है और संग- लिप्त मन वाला अकेले में रहकर भी समुदाय में रहता है कहा जाता है कि चित्त चंचल है, अनेक ग्र है । वह किसी एक अग्र (लक्ष्य) पर नहीं टिकता । किन्तु इस मान्यता में थोड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है । चित्त अपने आप में चंचल या अनेकाग्र नहीं है । उसे हम अनेक विषयों में बांध देते है तब वह संग लिप्त बन जाता है और यह संगलिप्तता हो उसकी अनेकाग्रता का मूल है । अनासक्त मन कभी चंचल नहीं होता और प्रासक्ति के रहते हुए कभी उसे एकाग्र नहीं किया जा सकता । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जितनी प्रासक्ति, उतनी अनेकाग्रता । जितनी अनासक्ति, उतनी एकाग्रता | पूर्ण अनासक्ति, मन का अस्तित्व समाप्त ।
२६ विवित्तसयणासण
बाह्य-तप का छठा प्रकार विविक्त शयनासन है । तीसवें है— एकान्त, आवागमन - रहित और स्त्री-पशु-वर्जित स्थान में विविक्त शयनासन है । बौद्ध साहित्य में विविक्त स्थान के नौ १. अरण्य, २. वृक्षमूल, ३. पर्वत, ४. कन्दरा, ५. गिरि-गुहा, प्रस्थ, ८. अभ्यवकाश, ६. पलाल - पुञ्ज ।
एकान्त शयनासन करने वाले का मन आत्म-लीन हो जाता है । इसलिये इसे 'संलीनता' भी कहा जाता है । बौद्ध पिटकों में एकान्तवास के लिए 'प्रति संलयन' भी प्रयुक्त होता है । श्रपपातिक में विविक्त - शयनासन के लिये 'प्रतिसंलीनता' का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार प्राचीन साहित्य में एकान्त स्थान या कामोत्तेजक इन्द्रिय-विषयों से वर्जित स्थान के लिये विवि-शयनासन-संलीनता, प्रति-संलयन और प्रति संलीनता - ये शब्द प्रयुक्त होते रहे हैं ।
अध्ययन में बताया गया शयनासन करने का नाम प्रकार बतलाए गए हैं— ६. श्मशान, ७. वन
२७ विजयट्टणयाए
प्रवृत्ति और निवृत्ति - - ये दो सापेक्ष शब्द हैं । प्रवर्तन का अर्थ है – 'करना' और निवर्तन का अर्थ है - ' करने से दूर होना' । जो नहीं करता — मन, वचन और काया की प्रवृत्ति नहीं करता, वही व्यक्ति पाप कर्म नहीं करने के लिये तत्पर होता है । जहाँ पापकर्म का कारण नहीं होता, वहाँ पूर्व-अर्जित कर्म स्वयं क्षीण हो जाते हैं । बन्धन प्रस्रव के साथ ही टिकता है । संवर होते ही वह टूट जाता है । इसीलिये पूर्ण संवर और पूर्ण निर्जरा- ये दोनों सहवर्ती होते हैं ।
२८ संभोग पच्चक्खाणेणं
श्रमण-संघ में सामान्य प्रथा मण्डली - भोजन ( सह - भोजन ) की रही है । किन्तु साधना का अग्रिम लक्ष्य है— प्रात्म-निर्भरता । मुनि प्रारम्भिक दशा में सामुदायिक जीवन
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