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चित्त-समाधि : जैन योग
प्रस्तुत दो सूत्रों में कहा गया है कि संवेग से धर्म श्रद्धा उत्पन्न होती है और निर्वेद से विषय विरक्ति । इन परिणामों के अनुसार संवेग और निर्वेद की उक्त परिभाषाएं समीचीन हैं । कई प्राचार्य संवेग का अर्थ 'भव- वैराग्य' और निर्वेद का अर्थ 'मोक्षाभिलाषा' भी करते हैं । किन्तु इस प्रकरण से वे फलित नहीं होते ।
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विसुद्धिमग्ग दीपिका के अनुसार जो मनोभाव उत्तम वीर्य वाली श्रात्मा को वेग के साथ कुशलाभिमुख करता है, वह संवेग कहलाता है । इसका अभिप्राय भी मोक्षाभिलाषा से भिन्न नहीं है ।
संवेग और धर्म श्रद्धा का कार्य-कारण-भाव है । मोक्ष की अभिलाषा होती है तब धर्म में रुचि उत्पन्न होती है और जब धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है तब मोक्ष की अभिलाषा विशिष्टतर हो जाती है । जब संवेग विशिष्टतर होता है तब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण हो जाते हैं, दर्शन विशुद्ध हो जाता है ।
जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, उसके कर्म का बन्ध नहीं होता । वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता है । 'कम्मं न बंधई' इस पर शान्त्याचार्य ने लिखा है कि अशुभ कर्म का बन्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि के प्रशुभकर्म का बंध नहीं होता, ऐसा नहीं कहा जा सकता । अशुभ योग की प्रवृत्ति छठे गुणस्थान तक हो सकती है और कषायजनित अशुभ कर्म का बन्ध दसवें गुणस्थान तक होता है । इसलिये इसे इस रूप में समझना चाहिये कि जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, अनन्तानुबन्धी चतुष्क सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसके नये सिरे से मिथ्या दर्शन के कर्म - परमाणुत्रों का बन्ध नहीं होता । वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता है। इसका सम्बन्ध दर्शन की उत्कृष्ट आराधना से है । जघन्य और मध्यम आराधना वाले अधिक जन्मों तक संसार में रह सकते हैं, किन्तु उत्कृष्ट श्राराधना वाले तीसरे जन्म का प्रतिक्रमण नहीं करते । यह तथ्य भगवती ( ८ / १०) से भी समर्थित है । गौतम ने पूछा- 'भगवन् ! उत्कृष्ट दर्शनी कितने जन्म में सिद्ध होता है ?" भगवान् ने कहा - "गौतम ! वह उसी जन्म में ही सिद्ध हो जाता है और यदि उस जन्म में न हो तो तीसरे जन्म में अवश्य हो जाता है ।'
जैन साधना-पद्धति का पहला सूत्र है— मिथ्यात्व - विसर्जन या दर्शन- विशुद्धि | दर्शन की विशुद्धि का हेतु संवेग है, जो नैसर्गिक भी होता है और श्रधिगमिक भी । साधना का दूसरा सूत्र है - प्रवृत्ति-विसर्जन या आरम्भ परित्याग । उसका हेतु निर्वेद है । जब तक निर्वेद नहीं होता, तब तक विषय विरक्ति नहीं होती और उसके बिना आरम्भ का परित्याग नहीं होता । दशवैकालिक नियुक्ति में भिक्षु के सतरह लिङ्ग बताए गए हैं. वहाँ संवेग और निर्वेद को प्रथम स्थान दिया गया है ।
८ वण्ण संजलणभत्तिबहुमाणयाए
वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान - ये चारों विनय प्रतिपत्ति के अंग हैं। वर्ण
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