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चित्त-समाधि : जैन योग
वालों के अभाव में चारित्र की विशुद्धि नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि केवली, जिन आदि अपराध के अनुसार प्रायश्चित्त देते थे, न्यून या अधिक नहीं। उनके अभाव में छेदसूत्रधर मनचाहा प्रायश्चित्त देते हैं, कभी थोड़ा और कभी अधिक। अतः वर्तमान में प्रायश्चित्त देने वाले के व्यवच्छेद के साथ-साथ प्रायश्चित्त का भी लोप हो गया है ।
प्राचार्य ने कहा-वत्स ! तू यह नहीं जानता कि प्रायश्चित्तों का मूलविधान कहां हुआ है ? वर्तमान में प्रायश्चित्त हैं या नहीं ?
प्रत्याख्यानप्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु में समस्त प्रायश्चित्तों का विधान है। उस आकर-ग्रन्थ से प्रायश्चित्तों का निर्वृहण कर निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार-इन तीन सूत्रों में उनका समावेश किया गया है। आज भी विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों को वहन करने वाले हैं। वे अपने प्रायश्चित्तों को विशेष प्रकार के उपायों से वहन करते हैं, अतः उनका वहन करना हमें दृग्गोचर नहीं होता। आज भी तीर्थ चारित्र सहित हैं तथा उनके निर्यापक भी हैं।
२. श्रुत-व्यवहार-जो बृहकल्प और व्यवहार को बहुत पढ़ चुका है और उनको सूत्र तथा अर्थ की दृष्टि से निपुणता से जानता है, वह श्रुत-व्यवहारी कहलाता है। यहां श्रुत से भाष्यकार ने केवल इन दो सूत्रों का निर्देश किया है।
प्राचार्य भद्रबाहु ने कुल, गण, संघ आदि में कर्त्तव्य-अकर्तव्य का व्यवहार उपस्थित होने पर द्वादशांगी से कल्प और व्यवहार-इन दो सूत्रों का निर्वृहण किया था। जो इन सूत्रों का अवगाहन कर चुका है और इनके निर्देशानुसार प्रायश्चित्तों का विधान करता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है।
३. माज्ञा-व्यवहार-कोई प्राचार्य भक्त प्रत्याख्यान अनशन में व्याप्त है। वे जीवनगत दोषों की शुद्धि के लिये अन्तिम आलोचना के आकांक्षी हैं। वे सोचते हैंआलोचना देने वाले प्राचार्य दूरस्थ हैं। मैं अशक्त हो गया हूं, अतः उनके पास नहीं जा सकता तथा वे प्राचार्य भी यहाँ पाने में असमर्थ हैं, अत: मुझे आज्ञा-व्यवहार का प्रयोग करना चाहिये।' वे शिष्य को बुलाकर उन आचार्य के पास भेजते हैं और कहते हैं'प्रार्य ! मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं।'
शिष्य वहां जाता है और प्राचार्य को यथोक्त बात कहता है। प्राचार्य भी वहाँ जाने में अपनी असमर्थता को लक्षित कर अपने मेधायी शिष्य को वहाँ भेजने की बात सोचते हैं । तब वे अपने गण में जो शिष्य आज्ञा-परिणामकर, प्रवग्रहण और धारणा में क्षय तथा सूत्र और अर्थ में मूढ़ न होने वाला होता है, उसे वहाँ भेजते हुए कहते हैं'वत्स ! तुम वहाँ आलोचना-माकांक्षी प्राचार्य के पास जागो और उनकी मालोचना को सुनकर यहाँ लौट मानो।'
प्राचार्य द्वारा प्रेषित मुनि के पास पालोचनाकांक्षी प्राचार्य सरल हृदय से सारी मालोचना करते हैं । आगन्तुक मुनि आलोचक प्राचार्य की प्रीतिसेवना और आलोचना
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