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ठाणं
तीसरा ध्येय है विपाकविचय । इसमें द्रव्यों के काल, संयोग प्रादि सामग्रीजनित परिपाक, परिणाम या फल ध्येय बनते हैं ।
चौथा ध्येय है संस्थानविचय | यह आकृति-विषयक प्रालम्बन है। इसमें एक परमाणु से लेकर विश्व के प्रशेष द्रव्यों के संस्थान ध्येय बनते हैं ।
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घध्यान करने वाला उक्त ध्येयों का प्रालम्बन लेकर परोक्ष को प्रत्यक्ष की भूमिका में अवतरित करने का अभ्यास करता है । यह अध्ययन का विषय नहीं है, किन्तु अपने अध्यवसाय की निर्मलता से परोक्ष विषयों के दर्शन की साधना है ।
ज्ञान की
ध्यान से पूर्व ध्येय का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक होता है । उस प्रक्रिया में चार लक्षणों और आलम्बनों का निर्देश किया गया है ।
ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक होती है, अहंकार और ममकार का विसर्जन आवश्यक होता है । इस स्थिति की प्राप्ति के लिए चार अनुप्रेक्षात्रों का निर्देश किया गया है । एकत्वभावना का अभ्यास करने वाला अहं के पाश से मुक्त हो जाता है । अनित्यभावना का अभ्यास करनेवाला ममकार के पाश से मुक्त हो जाता है ।
धर्म्य ध्यान का शब्दार्थ - जो धर्म से युक्त होता है, उसे घर्म्य कहा जाता है । धर्म का एक अर्थ है आत्मा की निर्मल परिणति मोह श्रौर क्षोभरहित परिणाम । धर्म का दूसरा अर्थ है - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र | धर्म का तीसरा अर्थ है-वस्तु का स्वभाव । इन अथवा इन जैसे अन्य अर्थों में प्रयुक्त धर्म को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है ।
धर्म्यध्यान के अधिकरी — अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयति श्रौर अप्रमत्तसंयति- इन सबको धर्म्यध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो सकती है ।
शुक्लध्यान के अधिकारी - शुक्लध्यान के चार चरण हैं । उनमें प्रथम दो चरणों — पृथक्त्व -सविचारी और एकत्ववितर्क- अविचारी के अधिकारी श्रुतकेवली ( चतुर्दशपूर्वी) होते हैं । इस ध्यान में सूक्ष्म द्रव्यों और पर्यायों का श्रालम्बन लिया जाता है, इसलिये सामान्य श्रुतधर इसे प्राप्त नहीं कर सकते ।
१. पृथक्त्ववितर्क - सविचारी - जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों-नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को पृथक्त्ववितर्क - सविचारी कहा जाता है ।
२. एकत्व वितर्क - अविचारी- - जब एक द्रव्य से किसी एक पर्याय का प्रभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का श्रालम्बन लिया जाता है तथा जहाँ
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