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चित्त-समाधि : जैन योग
शब्द, अर्थ एवं मन, वचन, काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को एकत्ववितर्क-अविचारी कहा जाता है ।
३. सूक्ष्मक्रिय अनिवत्ति- जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता; श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है। इसका निवर्तन-ह्रास नहीं होता, इसलिये यह अनिवृत्ति है।
४. समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति-जब सूक्ष्म-क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को समुच्छिन्नक्रिय कहा जाता है । इसका पतन नहीं होता, इसलिये यह अप्रतिपाति है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने हरिभद्रसूरिकृत योगबिन्दु के आधार पर शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों की तुलना संप्रज्ञातसमाधि से की है। संप्रज्ञातसमाधि के चार प्रकार हैं-वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत । उन्होंने शुक्लध्यान के शेष दो चरणों की तुलना असंप्रज्ञातसमाधि से की है।
__ प्रथम दो चरणों में पाये हुये वितर्क और विचार शब्द जैन, योगदर्शन और बौद्धतीनों ध्यान-पद्धतियों में समान रूप से मिलते हैं। जैन साहित्य के अनुसार वितर्क का मर्थ श्रुतज्ञान और विचार का अर्थ संक्रमण है । वह तीन प्रकार का होता है
१. अर्थविचार-अभी एक श्रुतवचन ध्येय बना हुआ है, उसे छोढ़ पर्याय को ध्येय बना लेना । पर्याय को छोड़ फिर द्रव्य को ध्येय बना लेना अर्थ का संक्रमण है।
२. व्यञ्जनविचार-अभी एक श्रुतवचन ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ दूसरे श्रुतवचन को ध्येय बना लेना। कुछ समय बाद उसे छोड़ किसी अन्य श्रुतवचन को ध्येय बना लेना व्यञ्जन संक्रमण है।
३. योगविचार-काययोग को छोड़कर मनोयोग का आलम्बन लेना. मनोयोग को छोड़कर फिर काययोग का पालम्बन लेना योग संक्रमण है।
यह संक्रमण श्रम को दूर करने तथा नए-नए पर्यायों को प्राप्त करने के लिये किया जाता है, जैसे—हम लोग मानसिक-ध्यान करते हुए थक जाते हैं, तब कायिक-ध्यान (कायोत्सर्ग, शरीर का शिथिलीकरण) प्रारंभ कर देते हैं । उसे समाप्त कर फिर मानसिक ध्यान प्रारंभ कर देते हैं । पर्यायों के सूक्ष्मचिन्तन से थककर द्रव्य का आलम्बन लेते हैं । इसी प्रकार श्रुत के एक वचन से ध्यान उचट जाए तब दूसरे वचन को मालम्बन बना लेते हैं। नई उपलब्धि के लिए ऐसा करते हैं।
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