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४४. ध्यान शब्द की विशद जानकारी के लिये अनुसार चेतना के दो प्रकार हैं- — चल और स्थिर । चेतना को ध्यान कहा जाता है ।
चित्त-समाधि : जैन योग
ध्यान- शतक द्रष्टव्य हैं । उसके चल चेतना को चित् और स्थिर
ध्यान के वर्गीकरण में प्रथम दो ध्यान - आर्त और रौद्र उपादेय नहीं हैं । अन्तिम दो ध्यान – धर्म्य और शुक्ल उपादेय हैं । आर्त और रौद्र ध्यान शब्द की समानता के कारण ही यहाँ निर्दिष्ट हैं ।
४५-४६. प्रस्तुत चार सूत्रों (४ / ६१ से ६४ तक ) में आर्त और रौद्र-ध्यान के स्वरूप तथा उनके लक्षण निर्दिष्ट हैं । आर्त्त ध्यान में कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता होती है और रौद्र-ध्यान में क्रूरता की प्रधानता होती है । ध्यान- शतक में रौद्रध्यान के कुछ लक्षण भिन्न प्रकार से निर्दिष्ट हैं
स्थानांग
उत्सन्नदोष
बहुदोष
श्रज्ञानदोष
श्रामरणान्तदोष
ध्यान- शतक
उत्सन्नदोष
बहु दोष नानाविधदोष
आमरणदोष
इनमें दूसरे और चौथे प्रकार में केवल शब्द भेद है । तीसरा प्रकार सर्वथा भिन्न है । नानाविधदोष का अर्थ है - चमड़ी उखेड़ने, प्रांखें निकालने आदि हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना । हिंसाजनित नानाविध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होना ज्ञानदोष से भी फलित होता है | प्रज्ञान शब्द इस तथ्य को प्रकट करता है कि कुछ लोग हिंसा प्रतिपादक शास्त्रों से प्रेरित होकर धर्म या अभ्युदय के लिये नानाविध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं ।
४७-४८. इन आठ सूत्रों (४ / ६५ से ७२ तक ) में धर्म्य और शुक्ल -ध्यान के ध्येय, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षाएं निर्दिष्ट हैं ।
धर्म्यध्यानधर्म्य ध्यान के चार ध्येय बतलाए गए हैं। ये अन्य ध्येयों के संग्राहक या सूचक हैं | ध्येय अनन्त हो सकते हैं । द्रव्य और पर्याय अनन्त हैं । जितने द्रव्य और पर्याय हैं, उतने ही ध्येय हैं । उन अनन्त ध्येयों का उक्त चार प्रकारों में समीकरण किया गया है ।
प्रज्ञाविचय प्रथम ध्येय है । इसमें प्रत्यक्ष ज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सभी तत्त्व ध्याता के लिये ध्येय बन जाते हैं । ध्यान का अर्थ तत्त्व की विचारणा नहीं है । उसका अर्थ है तत्त्व का साक्षात्कार | धर्म्यध्यान करने वाला श्रागम में निरूपित तत्त्वों का आलम्बन लेकर उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है ।
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दूसरा ध्येय है अपायविचय । इसमें द्रव्यों के संयोग और उनसे उत्पन्न विकार या वैभाविक पर्याय ध्येय बनते हैं ।
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