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ठाणं
अनिपन्न आतापना के तीन प्रकार हैं-१. गोदोहिका, २. उत्कटुकासनता, ३. पर्यङ्कासनता।
उर्ध्वस्थान आतापना के तीन प्रकार हैं-१. हस्तिशौंडिका, २. एकपादिका, ३. समपादिका।
३६. प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण का अर्थ है-अशुभ योग में चले जाने पर पुनः शुभ योग में लौट आना । प्रस्तुत सूत्र में विषय-भेद के आधार पर प्रतिक्रमण के पांच प्रकार किये गये हैं।
१. प्रास्रवप्रतिक्रमण—प्राणातिपात प्रादि प्रास्रवों से निवृत्त होना। इसका तात्पर्य है—असंयम से प्रतिक्रमण करना ।
२. मिथ्यात्वप्रतिक्रमण —मिथ्यात्व से पुनः सम्यक्त्व में लौट पाना । ३. कषायप्रतिक्रमण-कषायों से निवृत्त होना।
४. योग प्रतिक्रमण-मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना, अप्रशस्त योगों से निवृत्ति ।
५. भाव प्रतिक्रमण-इसका अर्थ है-मिथ्यात्व आदि में स्वयं प्रवृत्त न होना, दूसरों को प्रवृत्त न करना और प्रवृत्त होने वाले का अनुमोदन न करना ।
विशेष की विवक्षा करने पर चार विभाग होते हैं-१. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण, २. असंयमप्रतिक्रमण ३. कषायप्रतिक्रमण ४. योगप्रतिक्रमण ।
और उसकी विवक्षा न करने पर उन चारों का समावेश भाव प्रतिक्रमण में हो जाता है।
४०. प्रतिसंलीनता–प्रतिसंलीनता बाह्य तप का छठा प्रकार है। इसका अर्थ है-विषयों से इन्द्रियों को संहृत कर अपने-अपने गोलक में स्थापित करना तथा प्राप्त विषयों में राग-द्वेष का निग्रह करना। उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिसंलीनता के स्थान पर विविक्तशयनासन, विविक्तशय्या आदि भी मिलते हैं।
प्रतिसलीनता के चार प्रकार हैं--१. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, २. कषायप्रतिसंलीनता ३. योगप्रतिसंलीनता, ४. विविक्तशयनासन सेवन ।
प्रस्तुत सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पाँच प्रकारों का उल्लेख है। विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० १६२/६३ ।
४१. प्रस्तुत सूत्र में दस प्रकार के प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं । इनका निर्देश दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर किया गया है। कई दोष आलोचना प्रायश्चित्त द्वारा, कई प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त द्वारा है और कई पारांचिक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होते हैं। इसी आधार पर प्रायश्चित्तों का निरूपण किया गया है।
प्राचार्य अकलंक ने बताया है कि जीव के परिणाम असंख्येय लोक जितने होते हैं,
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