Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 13
________________ 121 प्रेरणा आचार्य श्री सन्मति सिन्धु की मिलती रही, नमन उनको हो सदा उत्तम समाधि कर सकू।। वीतरागी गुरू चरण में नमन शत-शत बार हो, त्रियोग शुद्धि से सदा ही ध्यान इनका नित रहो। ॥ नमः परमात्मने नमोऽनेकान्ताय। स्वायम्भुवं मह इहोच्छलदच्छमीडे, येनादिदेवभगवानभवत् स्वयम्भूः । भूर्भुवः प्रभृतिसन्मननैकरूपमात्मप्रभातृपरमात न मातृ-मात ॥1॥ माताऽसि मानमसि मेयमसीशमासिमानस्य यासिफलमित्य जितामिसर्वम्। नास्त्येव किञ्चिदुत नासि तथापि किञ्चिदस्येव चिच्चकचकायित धुधुरूचै॥2॥ एको न भासयति देव न मासनेऽस्मिन्नन्यस्त भासयति किच्चन मासतेय। तौ द्वी तुमासयसिशम्मव भासचेचविश्वयं भासयसि भासि भासकोन ॥ यद्धाति भाति तदिहाय च न मात्य मानि नाभाति भाति सच भाति न योन भाति । भाभाति भात्यापिचभातिन भात्यभाति साचाभिनन्दन विभान्त्यभिनन्दतित्यम् ।।4।। लोकप्रकाशासनपरः सविनुर्यथा यो वस्तुप्रपित्याभिमुखः सहजःप्रकाशः । सोऽयं तवोलुमति फारकचझचा चित्रोडप्यकर्बुररसप्रसवः सुबुद्धे ॥5 ।। एकं प्रकाशकभुशन्त्यपरं प्रकाश्यमत्यत्प्रकाशकमपीश तथा प्रकाशयम्। त्वं न प्रकाशक इहासि न च प्रकाश्यः पाप्रभ स्वयमसि प्रकटः प्रकाशः ॥5॥ अन्योन्यमापिबति वाचकवाच्यसद्यत् सत्प्रत्ययस्तदुभयं पिबति प्रसहय। सत्प्रत्ययस्तदुभयेन न पीयते चेत् पीतः समग्रममृतं भगवान् सुपार्चः ।। ।। उत्मजनीति परतो विनिमजतीति मग्नः प्रसह्य पुनरुत्प्सवते नयापि। अनर्निमग्न इति माति न माति माति चन्द्रप्रभस्य विशदयितिचन्द्रिकाचः॥४॥

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