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अध्याय 1
ॐ श्री मंगलाचरण ॐ नमः
घात चारों घातिया अरहंत पद जिन पा लिया, वीतरागी हितोपदेशी के चरण में शिर नया ।। ।। कर्म आठों नाशकर जिन सिद्ध पद को पा लिया, उन निरंजन शिवस्वरूपी का हृदय मन्दिर बना ।।2 ॥ आचार्य पाठक साधुगण शिवमार्ग के राही सदा, उर में वसो मेरे सदा संथम शील तप की भावना ।।। भात जिनवाणी है दर्शक द्रव्य गुण पर्याय की, पाकर शरण उनकी सदा हो प्राप्ति निज तत्त्व की ।।4 ॥
आदिसागर अंकलीकर आचार्य मुनिकुंजर हुए। कर प्रशस्त मुनि मार्ग को जगतकेनेता बने। महावीरकीर्ति निज शिष्य को पद स्वयं का दे दिया। उत्तम समाधि कर सभी को श्रेष्ठ पथ दर्शा दिया।
महावीर कीर्ति आचार्य श्री ने ग्रन्थ की रचना करी, उनके चरण प्रसाद से ही शब्द रचना यह बनी। आचार्य गुरुवर विमलसागर की कृपा हर क्षण रही, आशीष पा उनका निरंतर भावना फलती रही॥2॥