________________
श्री पार्श्व चन्द्राय नम : सम्पादकीय
परम् पूज्य प्रातः स्मरणीय चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर सम्राट वर्तमान मुनि परम्परा के प्रणेता श्री 108 आचार्य आदिसागर जी" अंकलीकर " महाराज तत् पट्ट शिष्य समाधि सम्राट बहुभाषी तीर्थ भक्त शिरोमणि 108 श्री महावीर कीर्ति जी महाराज तत् पट्ट शिष्य सिद्धान्त चक्रवर्ती तपस्वी सम्राट 108 आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज, श्री सम्मेदशिखर सिद्ध क्षेत्र पर समाधिस्थ 108 आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज, 108 आचार्य श्री संभव सागरजी महाराज, बाल ब्रह्मचारी वात्सल्यरत्नाकर सदी कुन्ती महाराज, 108 आचार्य श्री भरत सागरजी महाराज, प्रथम गणिनी, ज्ञानचिन्तामणि, विदुषीरत्न धर्म प्रभाविका 105 आर्यिका श्री विजयामती माताजी एवं लोक के सभी आचार्य, उपाध्याय, मुनि, आर्यिका माताजी, क्षुल्लक, क्षुल्लिका माताजी समस्त गुरु चरणों में त्रिवार नमोस्तु नमोस्तु | इच्छामि इच्छामि ।
श्री दिगम्बर जैन विजया ग्रन्थ प्रकाशन समिति झोटवाड़ा से प्रकाशित यह 39वां ग्रन्थ आपके कर कमलों में अर्पित करते हुए मुझे अत्यन्त प्रशन्नता है। प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक परम् पूज्य प्रातः स्मरणीय 18 भाषा के ज्ञाता तीर्थभक्त शिरोमणि 108 आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज हैं। यह प्रन्थ तीर्थंकरों की भक्ति से ओतप्रेत है । भोतिक सुख की प्राप्ति के लिए हम सांसारिक प्राणियों की भक्ति (चमचागिरी) उनके गुणों का गान कर उनसे कुछ प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं और अज्ञानता के अन्धकार में डूबकर शास्वत् सुख की प्राप्ति का प्रयास करना भूल जाते हैं । परन्तु गुणिक जन, विद्वान जन संयमी इस क्षणिक सुख की प्राप्ति में विश्वास नहीं करते और शास्वत अक्षुण्य सुख की प्राप्ति का प्रयास करते हैं वे ऐसे मोक्षगामी सिद्धों की भक्ति करते हैं जो उन्हें मोक्ष मार्ग पर ले जाकर स्वयं के समान बनाले | भक्त ऐसे तीर्थंकरों का गुणगान ही नहीं करता अपितु उन गुणों को स्वयं में धारण भी करता है। ऐसे ही थे हमारे परम् पूज्य ग्रन्थ रचियता श्री 108 आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज | हमें भी परम् पूज्य आचार्य श्री के पद चिन्हों पर चल कर इस ग्रन्थ का बारम्बार अध्ययन करें, तीर्थंकरों की भक्ति में लीन हो जायें, संयम को धारण करें और मोक्ष मार्ग के रास्ते पर कदम बढ़ायें ।
ग्रन्थ के श्लोक संस्कृत में हैं, सामान्य जन को समझने के लिए परम् पूज्य प्रथम गणिनी, धर्म प्रभाविका ज्ञान चिन्तामणी 105 श्री विजयामती माताजी ने अथक प्रयास से इसकी हिन्दी टीका की है। जिसे एक बार स्वाध्याय करने के बाद, बार-बार पढने की इच्छा जागृत होती है और बार-बार स्वाध्याय करने से आराध्य देव के गुणों का