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व्यवहारज्ञ
१०३६
व्यसनसङ्कुलः
विशेष का कथन करने वाला, विकल्प प्रतिपादक। सवृत्तिरूपं चरणं श्रुतं च तथैव नाम व्यवहारमंचत्। (सम्य० १२८) ०वस्तु विवेचन/स्वरूप विवेचन की पद्धतिश्रद्धानाधिगमोपेक्षाः याः पुनः स्युः परात्मनाम्।
सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा, स मार्गो व्यवहारतः।। (सम्य० ८३) व्यवहारज्ञ (वि०) व्यवसाय को समझने वाला, विशेष भेदादि
का ज्ञायक। व्यवहारतन्त्रं (नपुं०) आचरणक्रम। व्यवहारतन्तुः (पुं०) मोक्षमार्ग, व्यवहार से सम्बन्धित मोक्षमार्ग।
(सम्य० १२६) व्यवहार दर्शनं (नपुं०) आचरण प्रधान दर्शन।
०व्यवहार से श्रद्धाभाव। व्यवहारध्यानं (नपुं०) जिस ध्यान में आत्मा के अति अन्य
का आवलम्बन होना। व्यवहारनयं (नपुं०) सामान्य के अभाव के लिए सब द्रव्यों में
जो प्रवृत्त होता है। संग्रहनय ने द्वारा ग्रहण किये गए पदार्थों का भेद
व्यवहार-नय है। व्यवहारपदं (नपुं०) व्यवहार का विषय। व्यवहारपरमाणु (पुं०) आठ सन्ना सन्न द्रव्यों का एक
व्यवहार परमाणु होता है। व्यवहारपल्यं (नपुं०) एक प्रमाण विशेष, प्रमाणांगुल से
निष्पन्न योजन प्रमाण चौड़े, लम्बे और गहरे तीन गढ्डे
करें। उसमें वालाग्र से भरना व्यवहारपल्य है। व्यवहारमातृका (स्त्री०) कानूनी प्रक्रिया। व्यवहारविधिः (स्त्री०) विधि संहिता. कानून नियम। व्यवहारविषयः (पुं०) कानून योग्य विषय। व्यवहारसत्यं (नपुं०) लोक व्यवहार से सम्मत सत्य, जैसे-रोटी
पकाओ। व्यवहार सूर्यः (पुं०) सौभाग्यसूर्य। व्यवहारहिंसा (स्त्री०) शस्त्रादि से हिंसा। व्यवहारिन् (वि०) व्यवहार अनुष्ठान में प्रवृत्त। व्यवहित (वि०) अन्तर्हित हेतु विषयक कथन, अलग-अलग
रखना हुआ, बाधित, रोका गया। व्यवहतिः (स्त्री०) व्यवहार। (जयो० २/५) अभ्यास, प्रक्रिया। व्यवहारिका (स्त्री०) प्रथा. पद्धति, रीति। व्यवायः (पुं०) [अव+अय्+अच्] ०सम्भोग, मैथुन, सुरत। ।
व्यवसायः सुरतेऽन्त? इति विश्वलोचनः। (जयो०७० २७/१२) विश्लेषण, पृथक्करण, वियोजन। विघटन।
आवरण, आच्छन्न, आवृत्त।
०हस्तक्षेप, अंतराल, व्यवधान। व्यवायं (नपुं०) आभा, कान्ति, दीप्ति। व्यवायिन् (पुं०) [व्यवाय+इनि] ०कामुक व्यक्ति, भोगाकांक्षी
पुरुष।
कामोद्दीपक। व्यवेत (भू०क०कृ०) [वि+अव+इ+क्त] वियोजित. विश्लिष्ट।
पृथक् भिन्न। व्यशेषन् (भू०) भरा हुआ। (जयो० १/२६) व्यष्टि (स्त्री०) एकाकीपन, वैयक्तिकता।
वितरण शील विस्तार। व्यसनं (नपुं०) [वि+अस्+ल्युट्] ०बुरी आदत, बुरी लत।
०अनुपसेव्य का सेवन, अभक्ष का भक्षण, अखाद्य का उपयोग।
अपेय का पीना। क्षौद्रं किलाक्षुद्रमना मनुष्यः किमु सञ्चरेत्। भङ्गातमाखुसुलफादिषु व्यसनितां हरेत्।। (सुद० १३०) अभ्यास-खस्तस्य व्यसनमभ्यासस्तस्य आपद्विपत्तिर्यस्य (जयो०वृ० १/७५) ०पाप। (जयो०वृ० १/१०९) विपत्स्थान, कष्टमयस्थान। (जाये०६/४९) कल्याणमार्ग को भ्रष्ट करने वाला, श्रेयस्कर मार्ग घातक। विपत्ति, आधि, रोग, कष्ट। ०अनिष्ट, संकट, अभाग्य। ०पतन, पराजय, दोष, विविध कष्ट। (जयो०वृ० २/१२५) ०हानि, विनाश, क्षति, आघात। ० जुटना, संलग्न होना।
०हवा, वायु, पवन। व्यसनगत (वि०) व्यसन को प्राप्त हुआ। व्यसनभाव (पुं०) दोष भाव। व्यसनसङ्कलः (वि०) व्यसन समूह युक्त, विविध कष्टों से
घिरा हुआ। 'व्यसनैर्विविधकष्टैः संकुला व्याप्ता भवेदिति' (जयो०वृ० २/१२५)
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