Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation

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Page 403
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश १२५६ पारिभाषिक शब्द व भावलेश्या-कपाय के उदसये अनरंजित योगों की प्रवृत्ति। भुक्ति -भोग का क्षेत्र। भोजनांग-सब प्रकार का भोजन देने वाला एक कल्पवृक्षा मोहना, मढम्ब-जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो ऐसा नगर मघांग-एक कल्पवृक्ष, इससे अनेक रसों की प्राप्ति होती है। मधुस्वाविन्-मधुस्त्राविणी ऋद्धि के धारक। मनोगुसि-मनको वश में करना। मनोबलिन्-मनोबल ऋद्धि के धारक। मातृकापद-१. ईर्या, २. भाषा, ३. एषणा, ४. आदान निक्षेपण और, ५. प्रतिष्ठापन ये पाँच समितियाँ तथा १. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति और ३. कायगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ ये आठ मातृकापद अथवा प्रवचनमातृ का कहलाती है। मात्राष्टक भी यही हैं। मात्राष्टक-ईर्या, भाषा एषणा आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठान ये पाँच समितियाँ तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये ३ गुप्तियाँ। मार्गग्राएँ-१. गति, २. इन्द्रिय, ३. काम, ४, योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. लेश्या, ९. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्यत्व, १२. सम्यक्त्व, १३. संज्ञित्व और, आहारका मुक्तावली-एक तप का नाम। मोक्ष-आत्म का कार्मों से सर्वथा सम्बन्ध छुट जाना। वचोबलिन्-वचन बल ऋद्धि के धारक। वन (चतुर्विध)-१. भद्राशालबन, २. नन्दवान, ३. सौमनसवन, ४. पाण्डुकवन। वन्य-व्यन्तर देव, इनके किन्नर, किंपुरूष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये आठ भेद होते हैं। वाग्गुसि-वचन को वश में करना। वाग्विप्रुट्-एक ऋद्धि। विकृष्टग्राम-जिसमें सौ घर हो ऐसा ग्राम। इसकी सीमा १ कोश की होती है। विक्रियर्द्धि-एक ऋद्धि विशेष इसके आठ भेद है-अणिमा, महिमा, गारिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, और वशित्व। विक्षेपिणी-परमतका निराकरण करने वाली कथा। विपुलमति-विपुलमतिमनः पर्यय-ज्ञान ऋद्धि के धारक। विभंग-मिथ्या अवधिज्ञान, विभंग ज्ञान। विभूषणांग-आभूषण देने वाला कल्पवृक्ष। वैराग्यस्थैर्यभावना-विषयोंमें अनासक्ति, कायके स्वरूपका बार-बार चिन्तन करना और जागृत स्वभावका विचार करना। ये वेराग्यस्थैर्य भावनाएँ भावना-१. धृतिमत्ता-धैर्य धारण करना। २. क्षमावत्ता-क्षमा धारण करना। ३. ध्यानैकतानता-ध्यान में लीन रहना। ४. परीषहों के आने पर कार्य से च्युत नहीं होना। व्रतोद्योत-दूसरी व्रत प्रतिमा जिसमें ५. अणुव्रत ३. गुण-व्रत और ४. शिक्षाव्रत ये १२. व्रत धारण करने पड़ते हैं श शिक्षाव्रत-जिनसे मुनिव्रत धारण करने की शिक्षा मिले। ये चार हैं- सामायिक, प्राषधो-पवास, अतिथि संविभाग और संन्यास-सल्लेखना। कोई-कोई आचार्य सल्लेखना का पृथक् निरूपण कर उसके स्थान पर अतिथिसंविभाग व्रत अथवा वैयावृत्यका वर्णन करते रज्जु-असंख्यात योजन की एक रज्जू-राजू होती है। रत्नावली-सम्यदर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्र। रूचि-सम्यग्यर्शन पर्यान्तर। रौद्रध्यान-ध्यान का का एक भेद। इसके चार भेद है- १. हिंसानन्द, २. मृषानन्द, ३. स्तेयानन्द, ४. विषयरंक्षणानन्द। हैं। लोक-जहाँ तक जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छहो द्रव्य पाये जाते हैं उस १४ राजु ऊँचे और ३४३ राजु धन फल वाले आकाश को लोक कहते हैं लोक्यते लोकः। यह द्रव्य समूह का नाम। लोकपाल- देवों के एक प्रकार, ये देव कोतवाल समान नगर-के रक्षक होते हैं। शक्लध्यान-ध्यान का एक भेद इसके चार भेद होते हैं-१. पृथक्त्व, वितर्क विचार, २. एकत्व वितर्क, ३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और ४ व्युपरतक्रिया निवर्ति। श्रद्धा-सम्यग्दर्शन का पर्यायान्तर नाम। For Private and Personal Use Only

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