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पारिभाषिक शब्द
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बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश
श्रमण संघ के चार भेद-१. ऋषि, २. मुनि, ३. यति, ४ । सल्लेखना-समाधिमरण। सम्यक् विधि का अभिलेखन। अनगार। श्रुत्-सूत्र, शास्त्र, सिद्धान्त, प्रवचन आगम है।
समभाव पूर्वक मरण। श्रुतकेवली-पूर्ण श्रुतज्ञान के धारक मुनि।
सामानिक-देवों का एक भेद जो कि इन्द्र के माता-पिता श्रुतज्ञान-एक ज्ञान का नाम, गतिपूर्वक होने वाला ज्ञान।
आदि के तुल्य होता है। श्रुतज्ञानविधि-एक तप।
सिद्ध-अष्ट कर्म से रहित त्रिलोक के अग्र भाग पर निवास श्रेणीचारण-चारण ऋद्धि का एक भेद।
करने वाले जीव। श्रेणीबद्ध-श्रेणी के अनुसार बसे हुए विमान।
सिद्ध के आठ गुण-१. सम्यक्त्व, २. दर्शन, ३. ज्ञान, ४. प
वीर्य, ५. सौक्ष्म्य, ६. अवगाहन, ७. अव्याबाध, ८. षद्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये
अगुरुलघुता। छह द्रव्य हैं।
सुदर्शन-एक तप। सुष्ठु दर्शनं सुदर्शनम्। सुषमा-अवसर्पिणी का दूसरा काल।
सुषमासुषमा-अवसर्पिणी का पहला काल। सचित्तसेवाविरति-सचित्त त्याग नामक पांचवीं प्रतिमा। इसमें
सूक्ष्म-कार्मणस्कन्ध। सचित्त वनस्पति तथा कच्चे पानी का त्याग होता है।
सूक्ष्म-अणु स्कन्ध के भेदों की अपेक्षा व्यणुक। संख्याद्यनुयोग-१. सत्, २. संख्या, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शन, ४.
सूक्ष्मराग-दसवां गुणस्थान। काल, ६. अन्तर, ७. भाव, और ८. अल्प बहुत्व।
सूक्ष्मसूक्ष्म-अणु स्कन्ध के भेदों अपेक्षा व्यणुका सदर्शन-दर्शन प्रतिमा श्रावक की पहली प्रतिमा जिसमें आठ
सूक्ष्मस्थूल-जो आंखों से न दिखे पर अन्य इन्द्रियों से ग्रहण मूल गुणों के साथ सम्यग्दर्शन धारण करना पड़ता
में आये जैसे शब्द स्पर्श, रस, गन्ध।
संकल्प-विषयों में तृष्णा बढ़ाने वाली मन की वृत्ति को सप्तांग-कथा मुख के निम्नलिखित सात अंग हैं-१. द्रव्य, २.
संकल्प कहते हैं। इसी का दूसरा नाम दुष्प्रणिधान क्षेत्र, ३. तीर्थ, ४. काल, ५. भाव, ६. महाफल और
भी है। प्रकृत।
संग्रह-दस गांवों के बीच का बड़ा गांव। सप्ताम्बुधि-सात सागर।
संग्रह नय विशेष। समता-सामायिक नामक तीसरी प्रतिमा, इसमें दिन में ३ बार
संभिन्नश्रोतृ-संभिन्नश्रोतृ ऋद्धि के धारक। कम से कम दो-दो घड़ी पर्यन्त सामायिक करना
संवाह-जहां मस्तक पर्यन्त ऊंचे-ऊंच धान्य के ढेर लगे हों पड़ता है।
ऐसा ग्राम। समाहित-समाधि मरण से युक्त पुरुष।
संवेग-सम्यग्दर्शन का एक गुण-धर्म और धर्म फल में उत्साह सम्यक्चारित्र-मोक्षाभिलाषी एवं संसार से नि:स्पृह मुनि की
युक्त मन का होना अथवा चतुर्गतिके दुःखों से माध्यस्थ वृत्ति को सम्यक् चारित्र कहते हैं।
भयभीत रहना। सम्यक्त्वभावना-संवेग, प्रशम, स्थैर्य, असंमूढता, अस्मयगर्व नहीं
संवेदिनी-धर्म का फल वर्णन करने वाली कथा। करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सम्यक्त्व भावनाए हैं।
संसारी जीव के २ भेद-१. भव्य, २. अभव्य। सम्यग्ज्ञान-जीवादि पदार्थों की यथार्थत को प्रकाशित करने
सिंहनिष्क्रीडित-एक व्रत का नाम। वाला ज्ञान।
स्कन्ध-व्यणुक से लेकर लोकरूप महास्कन्ध तक का पुद्गल सम्यग्दर्शन-सच्चे देव-शास्त्र गुरु का श्रद्धान् अथवा जीवादि
प्रचल स्कन्ध कहलाता है। सात तत्त्वों का श्रद्धान।
स्थविर कल्प-मुनिव्रत का पालन करते हुए साथ-साथ विहार सर्पिः साविन्-घृतम्राविणी ऋद्धि के धारक।
करना स्थविर कल्प हैं सर्वतोभद्र-एक व्रत का नाम।
स्थूल-जो अलग करने पर अलग हो जाये और मिलने पर सर्वावधि-अवधि ज्ञान का एक भेद।
मिल जाये जैसे तेल पानी आदि। सौषधि-एक ऋद्धि।
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