Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 03
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation

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Page 398
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ अकर्म- अबन्धक स्थिति। अकषाय-राग द्वोष रहित अवस्था । www.kobatirth.org पारिभाषिक शब्द अजीवक १ मूर्तिक २ अमूर्तिक चेतना रहित । अजीवक भेद - १ पुद्गल २ धर्म ३ अधर्म ४ आकाश और ५ काल । अक्ष आत्मा इन्द्रिय अट्ट संख्या का प्रमाण अणु-पुद्गल का सबसे छोटा अंश। इसमें एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं। ०पुद्गल का अविभागी अंश । अणुव्रत - हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का एक देश स्थूल रूप से त्याग करना अणुव्रत है, ये पांच होते हैं। अतिसार - व्रत का उल्लंघन करना। अतिदुःषमा - अवसर्पिणी छठा काल। दूसरा नाम दु:षमा दुःषमा भी है। अधःकरण- सप्तम गुण स्थान की श्रेणी चढ़ने के सम्मुख अवस्था इसमें जीव के परिणामरूप समय और भिन्न समय में समान और असमान दोनों प्रकार के होते हैं। अधर्म जो जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक हो । अनिवृत्तिकरण- नौवां गुणस्थान इसमें समसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान और विषम समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं। अनीक देवों का एक भेद अनुकम्पन- सम्यग्दर्शन का एक गुण मोह तथा राग-द्वेष से पीड़ित जीवों को दुःख से छुटाने का दयार्द्र परिणाम होना। अनुमननत्याग अन्तरंग परिषद् के सदस्य देव । अपूर्वकरण- आठवां गुणस्थान इसमें भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न और समसमयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न तथा अभिन्न दोनों प्रकार के होते हैं। अपृथग्वक्रिया- अपने ही शरीर को नाना रूप परिणमाने की शक्ति। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रतिबुद्ध- आत्मा को कर्म-नोकर्म समझने वाला । अप्रत्याख्यान- देश संयम को घातने वाली कषाय । अभब्य - जिसे मुक्ति प्राप्त न हो सके ऐसा जीव । अभिन्नदशपूर्विन् - उत्पाद पूर्व आदि दशपूर्वी के ज्ञाता मुनि । अमन्नांग - सब प्रकार के बरतन देने वाला एक कल्पवृक्ष। अमम संख्या का एक प्रमाण । अमृतश्राविन्-अमृतश्राविणी ऋद्धि के धारक मुनि । अम्बरचारण- चारण से ऋद्धि का एक भेद अर्हत्- अरहन्त चार घातियां कर्मों को नष्ट करने वाले जिनेन्द्र अर्हत्। अरहन्त कहलाते हैं। अलोक लोक के बाहर का अनन्त आकाश जिसमें सिर्फ आकाश ही आकाश रहता है। अवधि-अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्रकट होने वाला देश प्रत्यक्ष ज्ञान, मर्यादित / सीमित ज्ञान । अवसर्पिणी- जिसमें लोगों के बल, विद्या, बुद्धि आदि का ह्रास होता है। इसमें दश कोड़ा कोड़ी सागर के सुषमा आदि छह काल हैं। अष्टुण अणिमा, महिमा, गरिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ गुण हैं। अष्टप्रातिहार्य-समदसरण में तीर्थ कर केवली के प्रकट होने वाले आठ प्रातिहार्य-१ अशोक वृक्ष, २. सिंहासन, ३. छत्रत्रय, ४. भामण्डल, ५. दिव्य ध्वनि, ६. पुष्पवृष्टि, ७. चौंसठ चमर, ८. दुन्दुभि बाजों का बजना । अष्टांग- सम्यग्दर्शन के निम्नलिखित आठ अंग हैं- १. निः शक्ति, २. नि:कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सित, ४. अमूढ दृष्टि, ५. उपगूहन अथवा उपबृंहण, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८ प्रभावना । अस्तिकाय बहुप्रदेशी द्रव्य जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच अस्तिकाय हैं। अहमिन्द्र सोलह स्वर्ग के आगे के देव अहमिन्द्र कहलाते हैं। अहः स्त्रीसंगवर्जन- दिवामैथुनत्याग नामक छठीं प्रतिमा संग रहित। For Private and Personal Use Only

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