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शिलालेखों के काल निर्धारण में उसकी लिपी और उसमें निर्दिष्ट घटनायें व व्यक्तियाँ के नाम बड़े सहायक होते हैं । अद्यावधि प्राप्त समस्त शिलालेखों में अजमेर म्यूजियममें सुरक्षित "वीरात् ८४ वर्ष बाद" संवतोल्लेखवाला जैनलेख सबसे प्राचीन है। ओझाजी ने उसकी लिपि अशोक के शिलालेखों से भी पुरानी मानी है इसके बाद सम्राट अशोक के धर्म विजय सम्बन्धी अभिलेख भारतके अनेक स्थानों में मिले हैं । जैन लेखों में खारवेल का उदयगिरि खंडगिरिवाला शिलालेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है इसमें श्री आदिनाथ की एक जैन मूर्ति नंद राजा के ले जाने
और उसे खारवेल द्वारा वापिस लाने का उल्लेख भी पाया जाता है। इससे जैन मूत्तियों की प्राचीनताका पता चलता है । पर अभी तक प्राप्त जैन मूर्तियों में सबसे प्राचीन पटना म्यूजियम वाली मस्तकविहीन जिन मूर्ति शायद सबसे प्राचीन है जो मौर्यकाल की है यद्यपि उसमें कोई लेख नहीं है। पर उसकी चमक उसी समय का है। इसके बाद मथुरा के जैन पुरातत्वका महत्व बहुत ही अधिक है उसमें कुशाणकाल के कुछ शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं जिनमें सबसे पुराना प्रथम शताब्दी का है। मथुरा के जैन लेखों में जिन कुल गण आदि के नाम है उनका उल्लेख करूपसूत्र की स्थविरावली में प्राप्त होनेसे वे लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायक सिद्ध हैं । कंकाली टीले में प्राप्त अनेक मूर्तियों व शिलालेखों से मथुरा का कई शताब्दियों तक जैन धर्म का केन्द्र रहना सिद्ध है।
गुप्तकाल भारत का स्वर्ण युग है। उस समय साहित्य संस्कृति कलाका चरमोत्कर्ष हुआ। गुप्त सम्राट यद्यपि वैदिक धर्मी थे पर वे सब धर्मों का आदर करनेवाले थे उस समय की एक मूर्ति मध्यप्रदेश के उदयगिरि में गुप्त संवत् के उल्लेख वाली प्राप्त हुई हैं। वैसे उस समय धातु की जैन मूर्तियों का प्रचलन हो गया था और सातवीं शताब्दी व उसके कुछ पूर्ववती जैन धातु प्रतिमायें कोटा ( बड़ौदा) आदि से प्राप्त हुई हैं ! राजस्थान के वसंतगढ़ में प्राप्त सुन्दर धातु मूर्तियां जो अभी पिंडवाड़े के जैन मंदिर में हैं, राजस्थान की सबसे प्राचीन जैन प्रतिमाएँ हैं। आठवीं शताब्दी की इन प्रतिमाओं के लेख मुनि कल्याणविजयजी ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित किये थे !
दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहू से हुआ माना जाता है पर उधर से सातवीं शताब्दी के पहले का कोई जैन लेख प्राप्त नहीं हुआ । दक्षिण के दिगम्बर जैन लेखों का संग्रह डा० हीरालाल जैन संपादित “जैन शिलालेख संग्रह" प्रथम भाग सन् १९२८ ई० में प्रकाशित हुआ।
श्वे. जैन शिलालेखों की कुछ नकलों के पत्र यद्यपि जैन भण्डारों में प्राप्त है पर आधुनिक ढंग से शिलालेखों के संग्रहका काम गत पचास वर्षों में हुआ। सन् १६०८ में पैरिसके डा० ए. गेरीयेनटने जैन लेखा सम्बन्धी Repertoire Depigrephi Jaine नामक ग्रन्थ फ्रान्सीसी भाषामें प्रकाशित किया इसमें ई० पूर्व सन् २४२ से लेकर ईस्वी सन् १८८६ तक के ८५० लेखोंका पृथक्करण किया गया जो कि सन् १९०७ तक प्रकाशित हुए थे उन्होंने उन लेखों का संक्षिप्तसार,
"Aho Shrut Gyanam"