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प्राक्कथन श्री अगरचन्द नाहटा व भंवरलाल नाहटा राजस्थान के अति श्रेष्ठ कर्मठ साहित्यिक हैं। एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार में उनका जन्म हुआ। स्कूल कालेजी शिक्षासे प्रायः बचे रहे। किन्तु अपनी सहज प्रतिभा के बल पर उन्होंने साहित्य के वास्तविक क्षेत्रमें प्रवेश किया, और कुशाग्र बुद्धि एवं श्रम दोनों की भरपूर पूंजीसे उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों के उद्धार और इतिहास के अध्ययन में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। पिछली सहस्राब्दी में जिस भव्य और बहुमुखी जैन धार्मिक संस्कृति का राजस्थान और पश्चिमी भारत में विकास हुआ उसके अनेक सूत्र नाहटाजीके व्यक्तित्वमें मानों बीज रूपसे समाविष्ट हो गए हैं। उन्हींके फलस्वरूप प्राचीन प्रन्थ भण्डार, संघ, आचार्य, मन्दिर, श्रावकों के गोत्र आदि अनेक विषयों के इतिहास में नाहटाजी की सहज रुचि है और उस विविध सामग्री के संकलन, अध्ययन और व्याख्या में लगे हुए वे अपने समय का सदुपयोग कर रहे हैं। लगभग एक सहस्र संख्यक लेख और कितने ही ग्रन्थ* इन विषयों के सम्बन्ध में वे हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करा चुके हैं। अभी भी मध्याह्न के सूर्यकी भांति उनके प्रखर ज्ञानकी रश्मियां बराबर फैल रही हैं। जहां पहले कुछ नहीं था, वहां अपने परिश्रम से कण-कण जोड़कर अर्थका सुमेरु संगृहीत कर लेना, यही कुशल व्यापारिक बुद्धिका लक्षण है। इसका प्रमाण श्री अभय जैन पुस्तकालय के रूपमें प्राप्त है। नाहटाजी ने पिछले तीस वर्षों में निरन्तर प्रयत्न करते हुए लगभग पन्द्रह सहस्र हस्तलिखित प्रतियां वहाँ एकत्र की है एवं पांच सौ के लगभग गुटकाकार प्रतियों का संग्रह किया है। यह सामग्री राजस्थान एवं देशके साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के लिये अतीव मौलिक और उपयोगी है। जिस प्रकार नदी प्रवाह में से बालुका धोकर एक-एक कण के रूपमें पौपीलिक सुवर्ण प्राप्त
* हर्ष है कि भनेक पत्र-पत्रिकाओं में विखरे हुए इन नियन्धों की मुद्रित सूची विद्वानों के उपयोगार्थ नाहटाजी ने प्रकाशित करा दी है।
"Aho Shrut Gyanam'