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हांस की सूचना इन लेखों में पाई जाती है। प्रस्तुत बीकानेर जैन लेख संग्रह के, कतिपय विविध दृष्टियों से महत्व रखनेवाले लेखों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना भी आवश्यक है । वक्तव्य बहुत लंबा हो रहा है इसलिये अब संक्षेप में ही उसे सीमित किया जा रहा है ।
सबसे महत्व का लेख चिंतामणिजी मन्दिर के मूलनायक मूर्ति के पुनरुद्धार का है। संवत् १३८० में श्री जिनकुशलसूरि द्वारा प्रतिष्ठित, यह चतुर्विशति पट्ट मंडोवर से बीकानेर बसने के समय लाया गया | संवत् १५६१ में बीकानेर पर कामरों के हुए आक्रमण का सामना राव जैतसी ने बड़ी वीरता पूर्वक किया। बीकानेर आक्रमण के समय इस मूर्ति का परिकर भंग कर दिया गया था, जीर्णोद्धार के लेख में इसका स्पष्ट उल्लेख है ।
दूसरे एक लेख में बीकानेर के दो राजाओं - कर्णसिंहजी व अनूपसिंहजी पिता पुत्रों को 'महाराजा' लिखकर दोनों के राज्यकाल का उल्लेख है वह भी एक महत्व की सूचना देता है । तीसरा लेख सती स्मारकों में से दो स्मारक ऐसे मिले हैं जिनसे स्त्रियाँ अपने पति के पीछे ही सती नहीं होती थी पर पुत्रों के साथ माता भी मोहवश अग्नि प्रवेशकर सद्दमरण कर लेती थी इसकी महत्वपूर्ण सूचना मिलती है ।
कई प्रतिमाओं में ऐसे स्थानों का निर्देश है जिनके नामों का अब पता नहीं है, या तो उनके नाम अपभ्रंश होकर परिवर्तित हो गये या वे स्थान ही नष्ट हो गये। परिशिष्ट में दी हुई स्थान सूची द्वारा उन स्थानों पर सविशेष विचार किया जा सकता है । ११ वीं शताब्दी के धातु प्रतिमा लेख में विलपत्य कूप का उल्लेख है । यह किलबू जैसे किसी गाँव के नाम का संस्कृत रूप होना सूचित करता है। इसी प्रकार १२ वीं शताब्दी के परिकर में अजयपुर का नाम आया है । उसी मिती का एक लेख जांगल का भी है । यह अजयपुर संभवतः जांगलू का उपनगर था जहां के कुएँ पर अजयपुर के नामोल्लेखवाला एक घिसा हुआ लेख हमारे देखने में आया था। अजयपुर (लेखक २१) व जांगलू के (ले० १५४३) दोनों लेख सं० १९७६ मि० ०६ के हैं । ये लेख श्रीजिनदत्तसूरिजी के समय के हैं। उनमें "विधि वैत्य" का उल्लेख होने से वे उन्हीं के करकमलों द्वारा प्रतिष्ठित होने का अनुमान है। इस प्रकार ये लेख बीकानेर जांगलू के प्रतिष्ठा लेखों में सबसे प्राचीन ठहरते हैं ।
इस ग्रन्थ में प्रकाशित लेख, विविध उपादानों पर से संग्रहित किये गये हैं। पाषाण व धातु प्रतिमाएँ, चरण, देवली, स्मारक, यंत्र एवं ताम्रपत्रादि पर उत्कीर्णित तो हैं ही पर कतिपय लेख tarai एवं काष्ठ पट्टिकाओंपर काली श्याही से लिखे हुए भी इस ग्रन्थ में दे दिये हैं जो साढ़े पाँच सौ वर्ष जितने प्राचीन हैं। अब तक काली श्याही के अक्षरों का पाषाण पर क्यों त्यों रह जाना आश्चर्य का विषय है। उत्कीर्ण करते समय छूटे हुए वे लेख अद्यावधि विद्यमान रहकर प्राचीन श्याही के टिकाऊपनकी साक्षी देते हैं। ऐसे लेख लेखाङ्क २४६६, २७३७, २७४६, २७६२ में प्रकाशित है।
हमने शय्यापटों के भी कतिपय लेख संग्रह किये थे पर वे इसमें नहीं दिये जा सके। ऐसे लेख उपाश्रयों में उपलब्ध हैं । अभिलेखों की भाषा संस्कृत है पर राजस्थानी व हिन्दी के भी
"Aho Shrut Gyanam"