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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५८७॥
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८ शतके
उद्देशः१ ॥५८७||
NARASI-AR
ररसरूपे पण परिणत छ स्पर्शथी कर्कशस्पर्श, यावत् रुक्षम्पर्शरूपे पण परिणत , अने संस्थानथी परिमंडलसंस्थान, वृत्तसंस्थान, व्यसंस्थान, चतुरस्र (चोरस) संस्थान अने आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, ते ए प्रमाणे जाणवा. अने ए प्रकारे सर्व क्रमपूर्वक जाणवं, यावत जे पुद्गलो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुचरौपपातिकयावत् प्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे परिणत पण छे, यावत् आयतसंस्थान रूपे पण परिणत के. [.६]
जे अपज्जता सुहुमपुढवि०एगिदियओरालियतेयाकम्मामरीरपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवन्नपरि जाव आययसंठाणपरि०, जे पजत्ता सुहमपुढवि. एवं चेव, एवं जहाणुपुब्बीए नेयव्वं जस्स जइ सरीराणि जाप जे पज्जत्ता सबट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियविउवियतेयाकम्मसरीरा जाव परिणया ते वन्नओ कालवन्नपरिणयावि जाव आयतसंठाणपरिणयावि ७॥
जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे, ते वर्णथी कालावणे पण परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. | ए प्रकारे यथानुक्रमे जाणवू. जेने जेटलां शरीर होय [तेने तेटलां कडेवां ] यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक
देवपंचेन्द्रिय वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी काळावणे पण परिणत छे, अने संस्थानथी यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छ [दं.७]
जे अपज्जत्ता सुहुमपुढाविकाइयएगिदियफासिंदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया जाव आयय
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