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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५८५॥
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पज्जत्ता सब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणया ते सौइंदियचक्खिदिय जाव परिणया ४ ॥ जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छ, जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथि
P८ शतके वीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे [स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. जे पुद्गलो अपर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत |
उद्देशः१ | छे ते पण एज प्रकारे छे. जे पुद्गलो पर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते पण एवाज छे. ए प्रमाणे चार भेदो यावद् |
।।५८५॥ वनस्पतिकायिकोना जाणवा. जे पुद्गलो अपर्याप्तबेइन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते जिह्वाइन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. जे पर्याप्तबेडन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे यावत् चउरिन्द्रिय जीवो जाणवा; परन्तु एक एक इन्द्रिय वधारवी [अथात् त्रीइन्द्रियजीवोने स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय अने घाणेन्द्रिय कहेवी, अने चउरिन्द्रियजीवोने एक चक्षुरिन्द्रिय वधारवी. ] | यावत् जे पुद्गलो अपर्याप्तरत्नप्रभापृथिवीनारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, जिढेन्द्रिय
अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तनारकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. सर्व तिर्यंचयोनिको, मनुष्यो अने | देवो पण ए प्रकारे कहेवा. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्त सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय 3 इत्यादि यावत् परिणत . [ दं. ४]
जे अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइयएगिदियओरालियतेयकम्मासरीरप्पयोगपरिणया तेफासिंदियपयोगपरिणया जे पज्जत्ता सुहुम० एवं चेव बादर०, अपज्जत्ता एवं चेव,एवं पजत्तगावि,एवं एएण अभिलावेणं जस्स जईदियाणि सरीराणि य ताणि भाणियबाणि, जाव जे य पज्जत्ता सम्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव देवचिदियवेउब्बियतेया
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