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८ शतके
उद्देशः१ 11५८३॥
एणं भेदेणं जाव थणियकुमारा, एवं पिसाया जाव गंधवा, चंदा जाव ताराविमाणा, सोहम्मो कप्पो जाव व्याख्या- अच्चुओ, हेट्ठिम २गेवेन्जजावउवरिम २गेवेज०, विजयअणुत्तरोववाइए जाव सव्वट्ठसिद्धअणु०, एक्ककणं दुयओ प्रज्ञप्ति | भेदो भाणियब्वा जाव जे पजत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइया जाव परिणया ते वेउव्वियतेयाकम्मासरी॥५८३॥ दारपयोगपरिणया, दडगा ३ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीतदेवप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे *गौतम ! ते वे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-पर्याप्त सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक; यावत् अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धप्रयोगपरिणत. ए [प्रमाणे ४ वे दंडको जाणवा. ] जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तेजश अने कार्मणशरीरप्रयोगपपरिणत छ; अने जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तैजश अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ॐाए प्रमाणे यावत् चउरिन्द्रिय पर्याप्ता जाणवा, परन्तु विशेष ए छे के जे पुद्गलो पर्याप्तवादरवायुकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत के |ते औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरपयोगपरिणत छे, बाकीनुं सर्व पूर्वे कद्या प्रमाणे जाणवू. जे पुद्गलो अपर्याप्तरत्नप्रभा
पृथिवीनारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तनारको पण जाणवा. ए | प्रमाणे यावत् सप्तम पृथिवी मुधी जाणवं. जे पुद्गलो अपर्याप्तसंमूछिमजलचरप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तंजस, अने कार्मण शरीर यावत् परिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्ता [ संमूछिम जलचर ] पण जाणवा. गर्भजअपर्याप्त अने गर्भजपर्याप्त पण एमज जाणवा. परन्तु विशेष ए छे के पर्याप्तबादरवायुकायिकनी पेठे तेओने चार शरीर होय छे. ए प्रमागे जेम जलचरोमा चार आलापक कहेला
RRCHANAK-44-4.4
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