Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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श्रीमद् राजचन्द्र
तोबहुतों पर उसके उपदेशका कुछ प्रभाव नहीं पड़ सकता । कारण लोग समझ लेते हैं कि परिस्थितिसे दुखी होकर बेचारेने संसार और घर-बार छोड़ा है। कितने यह सोच लेते हैं कि बेचारेको संसारका कुछ सुख भोगनेको नहीं मिला इस कारण लाचार हो संसार छोड़ देना पड़ा । जड़वादी समझ लेते हैं कि संसार या सम्पदाका सुख भोगनेको मिले तो कोई संसारका परित्याग नहीं कर सकता । इस लिए जो जो कारण ऐसे हैं कि संसार पर पड़नेवाले अपने उपदेशके प्रभावके बाधक हैं उन सबको दूर करके अपनी आत्म-स्थितिको इतनी उच्चता पर पहुँचा देनी चाहिए कि जिससे लोकोपकारार्थ जो शासनोद्धारका काम उठाया जाय उसमें बुद्धिको रत्तीभर भी अभिमान न हो । ऐसी अवस्था होने पर ही त्यागी बनना या त्याग-दशा धारण करना सार्थक है।
इस प्रकार कई कारणोंसे उन्होंने इक्कीस वर्षकी उम्रमें, प्रसिद्धि के प्राप्त जितने साधन थे उन सबसे सम्बन्ध तोड़ दिया और अबसे वे व्यापारकी
और झुक गये । इसके बाद लगभग कोई दस वर्ष पर्यन्त उन्होंने जवाहरातका धंदा किया। वे व्यापारमें कितने कुशल थे यह बात उन लोगोंसे तलाश की जाय कि जिनका उनके साथ व्यापारका अधिक सम्बन्ध रहा है, तो बहुत विश्वास है कि वे श्रीमद् राजचंद्रके विषयमें बहुत श्रेष्ठ विचार प्रकट करेंगे।
श्रीमद् राजचंद्र एक ओर तो बड़ा भारी व्यापार हाथमें लिये हुए थे और दूसरी ओर तत्त्व-ज्ञान तथा अध्यात्म-सम्बन्धी असाधारण प्रयत्न कर रहे थे । यह नहीं जान पड़ता कि यह बात किस तरह पाठकोंको समझाई जाय; परन्तु इतना तो सच है कि यदि उनके विस्तृत व्यापारकी
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