Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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आत्मसिद्धि ।
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अथवा अपने जैसे ही शुष्क-ज्ञानियोंके पास ऐसे ही ग्रन्थोंको पढ़ कर या उनके वचनोंका सुन कर अपनेको ज्ञानी समझ लिया है; और ज्ञानी बननेका जो एक प्रकारका अभिमान है वह उन्हें बड़ा मीठा जान पड़ता है और यही उनका पक्ष पड़ गया है। ऐसे लोग शास्त्रोंमें जो किसी विशेष कारणसे दया, दान, अहिंसा और पूजनकी समानता कही गई है उसका वास्तविक अर्थ समझे बिना उन बचनोंका सहारा लेकर उनका उपयोग या तो अपनेको ज्ञानी बनानेके लिए करते हैं या बेचारे क्षुद्र प्राणियोंका तिरस्कार करनेके लिए । बाह्यक्रियामां राचता, अंतर्भेद न कांइ । ज्ञानमार्ग निषेधता, तेह क्रियाजड आंहि ॥४॥ बाह्यक्रियासमासक्ता विवेकविकला नराः।
ज्ञानमार्ग निषेधन्तस्तेऽत्र क्रियाजडा मताः॥४॥ अर्थात् यहाँ पर 'क्रियाजड़' कहनेसे उन लोगोंसे मतलब है कि जो केवल बाह्य क्रियाओंमें ही रच-पच हो रहे हैं, आत्म-स्वरूपको कुछ नहीं जानते और ज्ञान-मार्गका निषेध करते हैं।
बंध, मोक्ष छे कल्पना, भावे वाणीमांहि । वर्ते मोहावेशमां, शुष्कज्ञानी ते आंहि ॥५॥ 'कल्पितौ बन्ध-मोक्षौ स्तः' इति वाग् यस्य केवलम् ।
चरितं मोहनापूर्ण तेऽत्र ज्ञानजडा जनाः॥५॥ अर्थात् —और शुष्क-ज्ञानी वे लोग हैं जो केवल बचनों द्वारा बड़ी
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