Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai

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Page 192
________________ आत्मसिद्धि । ५१ है वह उन्हें त्याग दे तो वे त्यागे जा सकते हैं । कर्म जीवके सहकारी हैं स्वाभाविक नहीं हैं । उन कर्मोंको मैंने तुम्हें अनादि भ्रम बतलाया है अर्थात् जीवको कमका कर्त्ता अज्ञानके कारण कहा है। इस लिए भी वे जीवसे पृथक हो सकते हैं । इस प्रकार उक्त दोनों बातें समझमें आती हैं। देखो, जो जो भ्रम होता है वह वह वस्तुकी उल्टी स्थिति पर विश्वास करानेवाला होता है जिस प्रकार कि मृग-तृष्णामें जल-बुद्धिका भ्रम होता है । कहने का मतलब यह है कि अज्ञानताके कारण ही क्यों न हो, परन्तु आत्माको यदि कर्मोंका कर्त्ता न माना जाय तो फिर उपदेशादिका सुनना, विचार करना, समझना आदिका कोई मतलब नहीं रह जाता। अब यहाँसे आगे परमार्थ दृष्टिसे जीवका जैसा कर्त्तापना है उसका वर्णन किया जाता है । चेतन जो निजभानमां, कर्ता आपस्वभाव । वर्ते नहीं निजभानमां, कर्ता कर्मप्रभाव ॥ ७८॥ यदाऽऽत्मा वर्तते सौवे स्वभावे तत्करस्तदा । यदात्मा वर्ततेऽसौवे स्वभावेऽतत्करस्तदा ॥ ७८ ॥ अर्थात् - आत्मा जब अपने चैतन्यादि शुद्ध स्वभावमें ही प्रवृत्त रहता है तब वह अपने उस स्वभावहीका कर्त्ता है - अपने स्वभाव में ही स्थित रहता है; और जब उसे शुद्ध चैतन्यादि स्वभावका भान नहीं रहता - उसमें वह स्थित नहीं होता तब कर्मोंका कर्त्ता है । समर्थन -- अपने स्वरूपका भान रहने पर आत्मा अपने स्वभावका - चैतन्यादि स्वभावका - ही कर्त्ता है; अन्य किसी कर्मादिका कर्त्ता नहीं हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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