Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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आत्मसिद्धि ।
अर्थात्-यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम उत्कृष्ट शुभगति-रूप हैं, उत्कृष्ट अशुभ परिणाम उत्कृष्ट अशुभगति-रूप है; और शुभाशुभ परिणाम मिश्रगति-रूप हैं। मतलब यह कि जीवके परिणामोंको ही मुख्यतासे गति-रूप कहा गया है। तथापि द्रव्यका यह विशेष स्वभाव है उत्कृष्ट शुभ द्रव्य ऊर्ध्वगमन करता है, उत्कृष्ट अशुभ द्रव्य अधोगमन करता है और शुभाशुभ द्रव्यकी मध्यस्थिति रहती है। और इन्हीं कारणोंसे ही वैसे वैसे भोग्य स्थान होने चाहिए । हे शिष्य, चैतन्यके स्वभाव, संयोग आदि सूक्ष्म स्वरूपका यहाँ बहुत कुछ समावेश हो सकता है और इसी लिए यह बात बड़ी गहन है तो भी यहाँ बहुत संक्षेपके साथ कह दी
__ समर्थन यहाँ पर यह शंका भी करना ठीक नहीं है कि "यदि ईश्वर कर्मोंका फल देनेवाला न हो, अथवा उसे जगत्का कर्त्ता न माना जाय तो कर्म-फल भोगनेके विशेष विशेष स्थान-नरकादि गतियाँ कहाँसे हो सकती हैं। क्योंकि उनके बनाने के लिए तो ईश्वरके कर्तृत्वकी आवश्यकता है।" इसका उत्तर यह है कि मुख्यपने तो उत्कृष्ट परिणाम उत्कृष्ट देव-गति है, उत्कृष्ट अशुभ परिणाम उत्कृष्ट नरक-गति है और शुभाशुभ परिणाम मनुष्य-तिर्यंच आदि गति है । तथा स्थान-विशेष जो उर्ध्वलोक स्थित देव-गति, अधोलोक-स्थित नरक-गति आदि हैं वे इन्हीं परिणामोंके भेद हैं तथा जीव और धर्म-द्रव्यके परिणाम विशेष हैं। मतलब यह कि वे वे गतियाँ जीवके कर्म-विशेष परिणाम जान पड़ती है।
इस लोकका परिणमन जीव और पुद्गलकी अचिन्त्य सामर्थ्यके संयोगसे होता है । इस पर विचार करनेके लिए बहुत ही विस्तारके साथ
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