Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai

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Page 225
________________ श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत आत्मसिद्धि । उच्छिष्टान्नायमानं वा स्वप्नवद् वेत्ति यो जगत् । एषा ज्ञानिस्थितिर्वाच्या शेषं वाग्जालमामतम् ॥ १४० ॥ अर्थात् — सारे जगत्को जिसने एक झूठी वस्तुके जैसा समझा है अथवा जिसके ज्ञानमें जगत् स्वमके जैसा भासमान हो रहा है वही सच्ची ज्ञानावस्था है बाकी केवल वचनोंसे कहा जानेवाला ज्ञान वाग्जाल है । स्थानक पांच विचारीने, छट्ठे व जेह । पामे स्थानक पांचमुं, एमां नहीं संदेह ॥ १४१ ॥ स्थानपञ्चकमालोच्य षष्ठके यः प्रवर्तते । ८४ प्राप्नुयात् पञ्चमं स्थानं नाऽत्र शङ्काकणोऽपि रे ! ॥ १४१ अर्थात् —- ऊपर कहे गये पाँचों पदोंके स्वरूपका विचार कर जो छठे पदमें अपनी प्रवृत्ति करता है - मोक्षके उपायका साधन करता है - वह पंचम-पद- निर्वाण-लाभ करता है । देह छतां जेनी दशा, वर्त्ते देहातीत । ते ज्ञानीनां चरणमां, हो वंदन अगणित ॥ १४२ ॥ देहातीता दशा यस्य देहे सत्यपि वर्तते । तज्ज्ञानिचरणे मेऽस्तु वन्दनाऽगणिता त्रिधा ॥ १४२ ॥ अर्थात् - पूर्व-कर्मों के योगसे जिसे शरीर प्राप्त है; किन्तु जिसकी दशा देहादिकी कल्पना - रहित आत्ममय है उस ज्ञानी - महात्मा पुरुषके चरणकमलोंमें अनन्त बार नमस्कार है । श्रीसद्गुरुचरणार्पणमस्तु । सं० १९५२ कुँवार विदी १,} गुरुवार, नडियाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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