Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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ईश्वरः फलदस्तत्राऽऽवश्वको न हि कर्मवि।
परिणमेत् स्वभावात् तद् भोगाद् दूरं विनश्यति८५ अर्थात्-विष और अमृतकी भाँति शुभाशुभ कर्म स्वभावहीसे परिणमते रहते हैं। इसमें फल-प्रदान करनेवाले ईश्वरकी कोई जरूरत नहीं।
और जिस प्रकार निःसत्व हो जानेके बाद विष और अमृत फल देनेसे रुक जाते हैं उनमें फिर फल देनेकी शक्ति नहीं रहती-उसी प्रकार
शुभाशुभ कर्म भोगे जानेके बाद निःसत्व होकर नष्ट हो जाते हैं। __समर्थन-जो यह कहा जाय कि कर्मोंका फल ईश्वर प्रदान करता है तो फिर ईश्वरका ईश्वरत्व ही नहीं रह सकता; क्योंकि दूसरोंको फल देने आदिके प्रपंचमें पड़नेसे ईश्वरके लिए फिर देह-धारण आदि बहुतसी बातोंकी संभावना स्वीकार करनी पड़ेगी; और ऐसा करनेसे उसकी परम शुद्धता नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार मुक्त जीव निष्क्रिय-पर-भावादिका कर्त्ता नहीं है, क्योंकि परभावोंके कर्ताको संसार धारण करता है इसी प्रकार ईश्वर भी यदि दूसरोंको फल देने आदि रूप क्रिया करे तो उसे भी फिर परभावादिका का मानना पड़ेगा । और इससे यह होगा कि वह मुक्त जीवसे भी नीचा ठहरेगा और उसकी यह स्थिति उसके ईश्वरत्वके ही नाशका कारण हो पड़ेगी।
और सुनो कि जीव और ईश्वरके स्वभावमें भेद माननेसे भी अनेक दोष आते हैं । देखो, दोनोंका यदि चैतन्य स्वभाव मानें तो दोनोंको समान धर्मके कर्ता होने चाहिए । यह ठीक नहीं है कि ईश्वर तो सृष्टि आदिकी रचना करे, अथवा कर्मों के फल-प्रदान-रूप कार्य करे और मुक्त गिना जाय, और जीव एक मात्र शरीरादिकी सृष्टि निर्माण करे
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