Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai

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Page 202
________________ आत्मसिद्धि। ६१ अर्थात्-जीय शुभ कर्म करे तो उसका देव-गतिमें वह शुभ फल भोगता है और अशुभ कर्म करे तो उसका नरक-गतिमें अशुभ फल भोगता है। परन्तु जीव कर्म-रहित हो कर किसी स्थान में नहीं रह सकता। सुगुरुका उत्तर । सुगुरु कहते हैं कि 'जीवकी कर्मोंसे मुक्ति हो सकती है, वह इस तरह जेम शुभाशुभ कर्मपद, जाण्यां सफळ प्रमाण । तेम निवृत्तिसफलता, माटे मोक्ष सुजाण ॥ ८९॥ - यथा शुभाशुभं कर्म जीवव्यापारतः फलि । फलवन्निर्वाणमप्यस्य तदव्यापारतस्तथा ॥ ८९ ॥ अर्थात्-जिस प्रकार जीवको शुभाशुभ कर्मों के करनेके कारण तुमने कर्मीका कर्ता और भोक्ता जाना उसी प्रकार यह भी समझो कि कौके न करनेसे अथवा किये कर्मोंके निवृत्तिका उपाय करनेसे उन कर्मोंकी निवृत्ति भी हो सकती है । इस लिए कहना चाहिए कि यह निवृत्ति भी सफल है अर्थात् जिस प्रकार शुभाशुभ कर्म निष्फल नहीं जाते उसी प्रकार निवृत्ति भी निष्फल नहीं जा सकती । और हे विचारशील आत्मन्, तू यह समझ कि वह निवृत्ति ही मोक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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