Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
View full book text
________________
आत्मसिद्धि।
७१ कषायस्योपशान्तत्वं मोक्षे रुचिर्हि केवलम् । भवे खेदो दया चित्ते सा जिज्ञासा समुच्यते ॥१०८॥ अर्थात्-उस जीवको मोक्ष मार्गका जिज्ञासु कहना चाहिए जिसकी कि कषायें मन्द पड़ गई हैं, जिसे मोक्ष-प्राप्तिके सिवा किसी प्रकारकी इच्छा नहीं है, जो संसारके विषय-भोगोंसे बड़ा उदासीन है तथा इसी प्रकार संसारके प्राणियों पर जिसे अन्तरंगसे दया है अर्थात् ऐसे मनुष्यको मोक्ष प्राप्त करनेका पात्र कहना चाहिए । ते जिज्ञासु जीवने, थाय सद्गुरुबोध । तो पामे समकितने, वर्ते अंतरशोध ॥ १०९॥
सद्गुरोर्बोधमाप्नुयात् स जिज्ञासुनरो यदि । तदा सम्यक्त्वलाभः स्यादात्मशोधनता अपि ॥१०९॥ अर्थात्-इस जिज्ञासु प्राणीको यदि सद्गुरुका उपदेश मिल जाय तो यह सम्यक्त्व प्राप्त कर आत्मान्वेषणके यत्न करनेमें प्रवृत्त हो सकता है । मत दर्शन आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरुलक्ष । लहे शुद्ध समकित ते, जेमां भेद न पक्ष ॥११०॥
मतदृष्ट्याग्रहैहींना यद्दत्तिर्गुरुपादयोः।। स संलभेत सम्यक्त्वं यत्र भेदो न पक्षता ॥११०॥ अर्थात्-अपने मत और दर्शनका आग्रह छोड़ कर जो सद्गुरुके उपदेशानुसार चलनेका यत्न करता है उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। उस सम्यक्त्वमें किसी प्रकारका भेद या पक्षपात नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org