Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai

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Page 190
________________ आत्मसिद्धि। १९ किये हुए हैं । इसी प्रकार चौथा विकल्प है 'प्रकृतिके बलात्कार से कर्म अनायास होते हैं। सो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जीवके प्रकृति आदि जड़ हैं, उसे आत्मा ग्रहण न करे तो वह किस तरह पीछे पड़ सकनेमें समर्थ हो सकती है ? ___ यह कहो कि द्रव्य-कर्महीका नाम तो प्रकृति है, इस लिए कर्मोंका कर्त्ता कर्महीको कहना चाहिए, सो इसका निषेध पहले किया ही जा चुका है । यह कहो कि प्रकृति नहीं तो मन आदि जो कोको ग्रहण करते हैं उससे आत्मामें कर्त्तापना सिद्ध होता है, सो यह भी सर्वथा सिद्ध नहीं हो सकता । कारण ये मन आदि चैतन्यकी प्रेरणाके बिना मन रूपसे ठहर ही नहीं सकते । आत्मा जो मनन करनेके लिए जिन कर्मवर्गणाओंका अवलम्बन लेता है वे मन है । जो आत्मा मनन न करे तो मनन करनेका धर्म-स्वभाव-कोई वर्गणाओंमें थोड़े ही है, वे तो सर्वथा जड़ हैं। आत्मा चैतन्यकी प्रेरणासे उन वर्गणाओंका अवलंबन-सहारालेकर ही कर्म ग्रहण करता है, इसी लिए उसमें कापनेका आरोप किया जाता है। परन्तु प्रधानतासे चैतन्य ही कर्मोंका कर्ता है। वेदान्त-दृष्टिसे तुम यदि इस पर विचार करोगे तो तुम्हें यह कथन एक भ्रान्त पुरुषके कथनके जैसा जान पड़ेगा। परन्तु नीचे जिस प्रकार यह कथन किया जाता है उसे समझनेसे तुम्हें उक्त कथनकी यथार्थता जान पड़ेगी और उसमें किसी प्रकारका फिर भ्रम न रह जायगा । जो कोई प्रकार आत्मा कर्मोंका कर्ता न हो तो वह भोक्ता भी नहीं बन सकता ! और यदि ऐसा ही हो तो फिर उसे किसी प्रकारका दुःख न होना चाहिए । और जब दुःखोंका होना संभव नहीं तब फिर वेदान्तादि शास्त्रोंने दुःखोंसे छुटकारा पानेका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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