Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai

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Page 188
________________ आत्मसिद्धि। ४७ समर्थन-अब, तुमने जो यह कहा कि कर्म अनायास ही होते रहते हैं, इस पर विचार करते हैं कि अनायास कहनेसे तुम्हारा मतलब क्या है ? क्या आत्माके बिना विचार किये ही हो गये ? या आत्माका कुछ कर्तृत्व न रहने पर भी जो हो गये ? अथवा ईश्वर वगैरह द्वारा कर्म चिपका देने पर अपने आप हो गये ? या प्रकृतिके बलात्कार से हो गये ? इस प्रकार मुख्य चार विकल्पोंसे अनायास-कर्तृत्त्वका विचार करना आवश्यक है। इनमें पहला विकल्प है 'आत्माके विना विचारे हो गये ।' जो ऐसा हो तो कर्मका ग्रहण करना बन ही नहीं सकता, और जहाँ कर्मका ग्रहण करना नहीं वहाँ कर्मका अस्तित्त्व भी संभव नहीं । और यह बात तो प्रकट अनुभवमें आती है कि जीव प्रत्यक्ष चिन्तन करता है, ग्रहण करता है और छोड़ता है। आत्मा यदि क्रोधादिक भावोंमें किसी प्रकार भी प्रवृत्त न होनेको सयत्न रहे तो वे उसमें उत्पन्न हो ही नहीं सकते । इससे यह जाना जाता है कि आत्माके विचार किये बिना अथवा आत्माने जिन्हें न किया हो ऐसे कर्मीका ग्रहण आत्माके द्वारा हो ही नहीं सकता। मतलब यह कि इन दोनों रीतियोंसे कर्मोका अनायास ग्रहण सिद्ध नहीं हो सकता। केवळ होत असंग जो, भासत तने न केम ?। असंग छे परमार्थथी, पण निजभाने तेम ॥ ७६ ॥ यदि स्यात् केवलोऽसङ्गः कथं भासेत न त्वयि ? । तत्त्वतोऽसंग एवाऽस्ति किंतु तन्निजबोधने ॥ ७६ ॥ अर्थात्-आत्मा जो सर्वथा निस्संग होता कभी कर्म-कर्तृत्व उसमें न होता-तो तुम्हें आत्मा पहले क्यों नहीं भास गया ? परमार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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