Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिनो, गणे परम उपकार । त्रणे योग एकत्वथी, वर्ते आज्ञाधार ॥ ३५ ॥ प्रत्यक्षसद्गुरुप्राप्तेर्विन्देदुपकृतिं पराम् ।
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योगत्रिकेन एकत्वाद् वर्तेताऽऽज्ञापरो गुरोः ॥ ३५ ॥ अर्थात् - आत्मार्थी जन सद्गुरुके लाभको बड़ा भारी उपकार समझते हैं । इस लिए कि जिन बातोंका शास्त्रादिके द्वारा समाधान नहीं हो सकता, और जो दोष सद्गुरुकी आज्ञा पाले बिना नहीं मिट सकते, सद्गुरुके समागमसे उन बातोंका (ठीक) समाधान हो जाता है और वे दोष भी मिट जाते हैं । इसी लिए आत्मार्थी जन प्रत्यक्ष सद्गुरुके समागमको बड़ा भारी उपकार मानते हैं और मन-वचन-कायसे उनकी आज्ञाके अनुसार चलते हैं ।
एक होय ऋण कालमां, परमार्थनो पंथ । प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत ॥ ३६ ॥
त्रिषु कालेषु एकः स्यात् परमार्थपथो ध्रुवम् । प्रेरयेत् परमार्थ तं ग्राह्यो व्यवहार आमतः ॥ ३६ ॥ अर्थात् — परमार्थ-मार्ग- मोक्ष मार्ग - तीनों कालमें एक ही है; और जिस व्यवहारसे यह परमार्थ सिद्ध हो सके प्राप्त किया जा सके वही व्यवहार जीवोंको मानना चाहिए; अन्य नहीं ।
एम विचारी अंतरे, शोधे सद्गुरुयोग । काम एक आत्मार्थन, बीजो नहीं मन रोग ॥३७॥
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