Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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आत्मसिद्धि ।
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जिस भाँति तलवार और म्यान एक म्यान-रूप जान पड़ने पर भी वास्तमें दोनों ही भिन्न भिन्न हैं उसी भाँति आत्मा और देह भिन्न भिन्न हैं । जे द्रष्टा छे दृष्टिनो, जे जाणे छे रूप । अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीवखरूप ॥ ५१ ॥ टेष्ट यो वेत्ति, रूपं सर्वप्रकारगम् । भात्यवाध्याऽनुभूतिर्या साऽस्ति जीवस्वरूपिका ५१ अर्थात् - आँखें आत्माको नहीं देख सकतीं; किन्तु आत्मा ही आँखोंको देखता है और आँखें केवल स्थूल रूपको देख सकती हैं, किन्तु आत्मा स्थूल सूक्ष्म आदि सबको जानता है । इसके सिवा इन्द्रिय-जन्य ज्ञानमें तो अन्य कारणोंसे रुकावट आ सकती है, परन्तु इसके ज्ञानमें कोई रुकावट नहीं पहुँचा सकता । अतएव यही ज्ञान या अनुभव आत्माका स्वरूप है ।
छे इंद्रिय प्रत्येकने, निज निज विषयनुं ज्ञान । पांच इंद्रिना विषयनुं, पण आत्माने भान ॥ ५२ ॥ स्वस्वविषये संज्ञानं प्रतीन्द्रियं विभाति भोः ! । परं तु तेषां सर्वेषां जागर्ति मानमात्मनि ॥ ५२ ॥ अर्थात् जो कानोंसे सुना जाता है उसका ज्ञान कानोंको होता है आँखोंको उसका ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार आँखोंसे देखी हुई वस्तुको कान नहीं देख सकते अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियको अपने ही अपने विषयका ज्ञान होता है, दूसरी इन्द्रियोंके विषयोंका ज्ञान नहीं होता; और आत्माको तो पाँचों ही इन्द्रियोंके विषयोंका ज्ञान होता है । मतलब यह कि
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