Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
View full book text
________________
श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतकिसीमें भय-संज्ञाकी, किसीमें कामादिकी लालसा न होनेकी, और किसीमें आहारादिकी अधिक लुब्धता-की विशेषता देखी जाती है। इस प्रकार क्रोधादि संज्ञाओंकी न्यूनाधिकता तथा अन्य अन्य प्रकृतियोंकी विशेषता जन्मसे ही जीवोंके साथ देखी जाती है। इस विशेषताका कारण पूर्वका संस्कार ही संभव है। कदाचित् यह कहा जाय कि गर्भ में वीर्यके गुणके सम्बन्धसे भिन्न भिन्न प्रकारके गुण उत्पन्न हो जाते हैं, इसमें पूर्व जन्मका कोई सम्बन्ध नहीं । यह कहना ठीक नहीं हैं। कारण यदि यह. निश्चित बात होती तो फिर यह विशेषता कमी दिखाई नहीं पड़ती कि मा-बाप तो अत्यन्त कामी और उनके लड़के बालकपनसे ही परम वीतरागी; तथा मा-बाप तो अत्यन्त क्रोधी और उनकी सन्तान बड़ी ही क्षमाशाली। दूसरे वीर्य तो चैतन्य नहीं होता फिर इन गुणोंकी उसमें संभावना ही कैसे की जा सकती है । वीर्यमें तो जब चैतन्य संचार करता है तब वह देह धारण करता है। इस लिए वीर्यके आश्रित क्रोधादिक भाव नहीं माने जा सकते । चैतन्यके बिना ऐसे भाव कहीं अनुभवमें नहीं आ सकते । ये भाव केवल चैतन्यके आश्रित हैं अर्थात् वीर्यके गुण नहीं हैं। और इसी लिए वीर्यकी न्यूनाधिकतासे क्रोधादिककी न्यूनाधिकताको मुख्यता नहीं दी जा सकती।
चैतन्यके न्यूनाधिक प्रयोगसे (प्रेरणा) क्रोधादिककी न्यूनाधिकता होती है । इस लिए न्यूनाधिकता गर्भ-गत वीर्यका गुण नहीं, किन्तु चैतन्यका आश्रित गुण है। और यह न्यूनाधिकता चैतन्यके पूर्वके अभ्याससे ही होती है। क्योंकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। चैतन्यका पूर्व-जन्मका प्रयोग वैसा होता है तभी उसके वैसे संस्कार होते हैं। और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org